Monday, October 29, 2018

रात के स्याह अँधेरे में


रात के स्याह अँधेरे में
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रात के स्याह अँधेरे में
एक नारी देह
धराशायी हुई
बहु-मंज़ली ईमारत से
और लग गया जमघट
शुरू हो गया
क़यासों का सिलसिला

यह आत्महत्या है
या जघन्य हत्या
बिना कुछ जाने
क़यास लगाये जाते है/

एक निरीह अबला आत्महत्या करे
तब भी दोष उसी के सर मढ़ा जाता है
“ऐसा आत्मघाती कदम उठाने से पहले
अबोध बच्चों का तो कुछ सोचती”/


जिसके कारण यह हालात बने
उस पर कोई ऊंगली क्यों नहीं उठाता
अंततः जब तहकीकात बताती है
“दोषी पुरुष था”
सभ्य समाज
विरोध के स्वर क्यों नहीं गूँजाता”?

क्या कभी किसी ने
ऐसा भी सोचा है?
वैवाहिक रिश्तों में
दरार और तकरार
लाता हैं मासूम संतान पर
तबाही का अम्बार/

कोई जान से गया
और कोई सलाखों के पीछे गया
बच्चों को अनाथ कर के
दुश्वारियों की विरासत दे गया/
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@रजनी छाबड़ा




Friday, September 7, 2018

ज्ञान की डगर

                          ज्ञान की डगर 

गवरा, धापू, लिछमी और रामी 
तेज़ तेज़ पग उठाती 
शाला की डगर पर बढ़ती जाती 

आज बहिन जी सिखाएंगी जोड़ बाक़ी 
जिसे समझे सीखे बाद 
बनिए की होशियारी 
नहीं चल पाती 

आखर ज्ञान से  है 
फ़ायदा ही फ़ायदा 
साहूकार का ज़ोर 
नहीं चलेगा ज़्यादा 

गवरा, धापू, लिछमी और रामी 
अब तुम से मन की बात क्यों न कहूँ 
गाँव री सबै लुगाइयाँ पढ़ना चाहवें 
मैं ही अनपढ़ क्यों रहूँ 

चूल्हा सुलगाती , दाल भात राँधती 
बिजली से मन मेँ कौंध जाती 
धधकती आग निहारती 
सुलगता मन लिए 
चूल्हे से कच्चे कोयले सरकाती 
दीवार पर ही क ख ग  घ लिखती जाती 

सेंटर नहीं जा पाती, तो क्या 
अपनी बेटियों को अपना गुरु बनाती 
धापली ज्ञान की डगर पर बढ़ती जाती 

राख मेँ सुलगती चिंगारी 
आह्वान करती शिक्षा के महायज्ञ का 
मेरे गांव की हर नारी 
महायज्ञ में आहुति डालती 
ज्ञान की मंज़िल पाती 
खुशहाली की ओर बढ़ती जाती 

रजनी छाबड़ा





Sunday, April 22, 2018

कहाँ गए सुनहरे दिन

कहाँ गए सुनहरे  दिन 
जब बटोही सुस्ताया करते थे 
पेड़ों की शीतल छाँव में 

कोयल कूकती थी 
अमराइयों में  
सुकून था गावँ में 

कहाँ गए संजीवनी दिन 
जब नदियां स्वच्छ शीतल 
जलदायिनी थी 

शुद्ध हवा में  सांस लेते थे हम 
हवा ऊर्जा वाहिनी थी 

रजनी छाबड़ा 

Thursday, April 19, 2018

अनुसृजन: साहित्यिक और सांस्कृतिक अनुष्ठान


अनुसृजन: साहित्यिक और सांस्कृतिक अनुष्ठान 

साहित्य सृजन मन के भावों को उकेरने का माध्यम है और अनुवाद इन भावात्मक छवियों को अपनी भाषा के शब्द शिल्प में बांधकर और विस्तार देने का सशक्त साधन/
लेखन में भावाभिव्यक्ति जब दिल की गहराईयों से उतरती हैभाषा और प्रदेश के बंधन तोड़ती हुई, सुधि पाठकगण के मन में गहनता से स्थान बना लेती है/ यहाँ मैं यह बात अपने हिंदी काव्य संग्रह पिघलते हिमखंड के सन्दर्भ में भी कह रही हूँ/ इस काव्य कृति की चुनिन्दा कविताओं के नेपाली, बंगाली, पंजाबी, राजस्थानी, मराठी, गुजराती में अनुवाद की श्रृखला में एक विशिष्ट कड़ी जुड गयी है; सम्पूर्ण काव्य संग्रह का मैथिली अनुवाद और यह सराहनीय अनुसृजन डॉ.शिव कुमार, एसोसिएट प्रोफेसर हिंदी, पटना विश्व विद्यालय के अथक प्रयासों का परिणाम है/
व्यक्तिगत रूप से डॉ शिव कुमार से कोई परिचय नहीं था/ फेसबुक की आभासी दुनिया के माध्यम से जान पहचान हुई/ मैंने आज तक अपने प्रथम हिंदी काव्य संग्रह होने से न होने तक के अलावा अपनी अन्य मौलिक और अनुसृजित काव्य कृतियों का कभी भी औपचारिक लोकार्पण नहीं करवाया/ सोशल मीडिया पर ही पाठक गण को अपनी कृतियाँ लोकार्पित किया करती हूँ/ बहुत से साहित्यिक प्रवृति के मित्रों व् प्रकाशकों से परिचय हुआ फेसबुक के माध्यम से/ डॉ.शिव ने भी मेरी कुछ रचनाएँ फेसबुक पर देखी, जिन में से पिघलते हिमखंड की रचनाएँ उन्हें काफी पसंद आयी और उन्होंने इस काव्य संग्रह की मैथिली में अनुवाद करने की इच्छा जतायी, जिसे मैंने सहर्ष स्वीकारा/ यह उनकी निष्ठा और कार्य के प्रति समर्पण का ही फल है की इतने अल्प समय में इतना प्रभावी अनुसृजन हो पाया है/ मूल रचनाकार के मनोभावों को आत्मसात करना और उस में अपनी भाषा में अभिव्यक्त करते हुए शोभा में वृद्धि करना कोई आसान काम नहीं है; परन्तु डॉ शिवकुमार से इस अनुवाद कार्य को  बहुत सहजता से सम्पन्न किया/
यदि आप इन कविताओं को मैथिली में पढेंगे तो ऐसा आभास होगा जैसे कि यह मूलतः मैथिली में ही लिखी गयी हों/ यह अनुसृजनकर्ता की अत्यन्त प्रशंसनीय उपलब्धि है/ कुछ चुनिन्दा रचनाओं का आनन्द आप भी लीजिये, मूल हिंदी और अनुदित मैथिली रचना
मधुबन
कतरा
कतरा
नेह के
अमृत से
बनता पूर्ण
जीवन कलश

यादों की
बयार से
नेह की
फुहार से
बनता जीवन
मधुबन


मधुबन
बुन्न बुन्न
नेहक अमिय सँ
जिनगीक घैल
भरैत छै।
स्मृतिक
बसात आ
नेहक फुहार सँ
बनैत छै
जिनगीक मधुबन।



यह कैसा सिलसिला
कभी कभी दो कतरे नेह के
दे जाते हैं सागर सा एहसास

कभी कभी सागर भी
प्यास बुझा नहीं पाता

जाने प्यास का यह कैसा है
सिलसिला और नाता/

'"ई केहन अनुक्रमण"
कखनहुँ तऽ नेहक दू बुन्न 
दऽ जाएत छै सिन्धु सन तोष
कखनहुँ समुद्रो
पियास नहि मेटा पबैत छै
नै जानि पियासक ई केहन
अनुक्रमण आ नाता छै !



क्या जानें
बिखरे हैं आसमान में
ऊन सरीखे
बादलों के गोले
क्या जाने, आज ख़ुदा
किस उधेड़ बुन में हैं/

की जैन
छितराएल छै अकाश मे
ऊँन सन
मेघक ढेपा
की जैन आइ परमतमो
कोन गुण धुन मे लागल छैथ !


मैथिली अनुवाद सुधि पाठकों को सौंपते हुए, प्रभु से कामना करती हूँ कि डॉ शिव कुमार की अनुदित कृति साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान बना पायें/ हृदय से आभरी हूँ अनुसृजनकर्ता की जिनके माध्यम से मेरे हिंदी काव्य संग्रह पिघलते हिमखंड को साहित्यिक रूप से समृद्धभाषा मैथिली में विस्तार मिल रहा हैं/ इस काव्य गुच्छ की सुरभि कहाँ कहाँ पहुँची, जानने की उत्सुकता और आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी/
  
रजनी छाबड़ा
बहुभाषीय कवियत्री व् अनुवादिका
गुरुग्राम (हरयाणा)





Tuesday, March 6, 2018

मैं कहाँ थी



मैं कहाँ थी 

मैं जब वहां थी
तब भी, मैं
नहीं वहां थी
अपनों की
दुनिया के मेले में 
खो गयी मैं
न जाने कहाँ  थी

बड़ों की खूबियों
का अनुकरण
कर  रहा  था
मेरे व्यक्तित्व 
का हरण 
मेरा निज 
परत  दर परत
दफ़न हो रहा था
और मैं अपने
दबते अस्तित्व से
परेशान थी

कच्ची उम्र में 
ज़रूरत होती है
सहारे की 
अपने पैरों
खड़े होने के बाद,
सहारे सहारे चलना
नादानी है बेल की
सोनजुही सी
पनपने की
सामर्थय मेरी
औरों के
सहारे सहारे चलना
क्यों मान लिया था
नियति  मेरी

मौन व्यथा और 
आंसुओं  से
सहिष्णु धरती का
सीना सींच
बरसों बाद 
अंकुरित हुई हूँ अब
संजोये मन में , 
पनपने की चाह
बोनसाई सा नही 
चाहती हूँ ज़िंदगी में 
सागर सा विस्तार

नही जीना चाहती
पतंग की जिंदगी
लिए आकाश का विस्तार
जुड़ कर सच के धरातल से
अपनी ज़िंदगी का ख़ुद
बनना चाहती हूँ आधार



रजनी छाबड़ा