Tuesday, March 6, 2018

मैं कहाँ थी



मैं कहाँ थी 

मैं जब वहां थी
तब भी, मैं
नहीं वहां थी
अपनों की
दुनिया के मेले में 
खो गयी मैं
न जाने कहाँ  थी

बड़ों की खूबियों
का अनुकरण
कर  रहा  था
मेरे व्यक्तित्व 
का हरण 
मेरा निज 
परत  दर परत
दफ़न हो रहा था
और मैं अपने
दबते अस्तित्व से
परेशान थी

कच्ची उम्र में 
ज़रूरत होती है
सहारे की 
अपने पैरों
खड़े होने के बाद,
सहारे सहारे चलना
नादानी है बेल की
सोनजुही सी
पनपने की
सामर्थय मेरी
औरों के
सहारे सहारे चलना
क्यों मान लिया था
नियति  मेरी

मौन व्यथा और 
आंसुओं  से
सहिष्णु धरती का
सीना सींच
बरसों बाद 
अंकुरित हुई हूँ अब
संजोये मन में , 
पनपने की चाह
बोनसाई सा नही 
चाहती हूँ ज़िंदगी में 
सागर सा विस्तार

नही जीना चाहती
पतंग की जिंदगी
लिए आकाश का विस्तार
जुड़ कर सच के धरातल से
अपनी ज़िंदगी का ख़ुद
बनना चाहती हूँ आधार



रजनी छाबड़ा