क्या तुम सुन रही हो,माँ
माँ,तुम अक्सर कहा करती थी
बबली,इतनी खामोश क्यों हो
कुछ तो बोला करो
मन के दरवाज़े पर दस्तक दो
शब्दों की आहट से खोला करो
अब मुखर हुई हूँ,
तुम ही नहीं सुनने के लिए
विचारों का जो कारवां
तुम मेरे ज़हन में छोड़ गयी
वादा है तुमसे
यूं ही बढ़ते रहने दूंगी
सारी कायनात में तुम्हारी झलक देख
सरल शब्दों की अभिव्यक्ति को
निर्मल सरिता सा
यूं ही बहने दूंगी
मेरा मौन अब
स्वरित हो गया है/
माँ,क्या तुम सुन रही हो
माँ,तुम अक्सर कहा करती थी
बबली,इतनी खामोश क्यों हो
कुछ तो बोला करो
मन के दरवाज़े पर दस्तक दो
शब्दों की आहट से खोला करो
अब मुखर हुई हूँ,
तुम ही नहीं सुनने के लिए
विचारों का जो कारवां
तुम मेरे ज़हन में छोड़ गयी
वादा है तुमसे
यूं ही बढ़ते रहने दूंगी
सारी कायनात में तुम्हारी झलक देख
सरल शब्दों की अभिव्यक्ति को
निर्मल सरिता सा
यूं ही बहने दूंगी
मेरा मौन अब
स्वरित हो गया है/
माँ,क्या तुम सुन रही हो
काफ़ी है
एक ख़्वाब
बेनूर आँख के लिए
एक आह
खामोश लब के लिए
एक पैबंद
चाक़ जिगर
सीने के लिए
काफी हैं
इतने सामान
मेरे जीने के लिए
एक ख़्वाब
बेनूर आँख के लिए
एक आह
खामोश लब के लिए
एक पैबंद
चाक़ जिगर
सीने के लिए
काफी हैं
इतने सामान
मेरे जीने के लिए
यह चाहत
यह चाहत मेरी तुम्हारी
ग़र यह हसीन सपना है
नींद खुले न कभी मेरी
गर यह हकीकत है
नींद कभी न आये मुझे
यह चाहत मेरी तुम्हारी
ग़र यह हसीन सपना है
नींद खुले न कभी मेरी
गर यह हकीकत है
नींद कभी न आये मुझे
कस्तूरी मृग
कस्तूरी की गंध
खुद में समेटे
भ्रमित भटक रहा था
कस्तूरी मृग
आनंद का सागर
खुद में सहेजे
कदम बहक रहे थे
दसों दिग़
कस्तूरी की गंध
खुद में समेटे
भ्रमित भटक रहा था
कस्तूरी मृग
आनंद का सागर
खुद में सहेजे
कदम बहक रहे थे
दसों दिग़
मुझ से कैसी होड़ पतंग की
मैं पंछी खुले आसमान का
सकल विस्तार
निज पंखों से नापा
डोर पतंग की
पराये हाथों
उड़ान गगन की
आधार धरा का
मैं पंछी खुले आसमान का
सकल विस्तार
निज पंखों से नापा
डोर पतंग की
पराये हाथों
उड़ान गगन की
आधार धरा का
कम्प्यूटर के युग में
कम्प्यूटर के इस युग में
कट,कापी ,पेस्ट
के चलन ने
कैसी वैचारिक क्रांति लाई
मौलिक सोच को
लगने लगा जंग
और सूखने लगी स्याही
लेखनी ,कागज़ के संग
रह गयी अनब्याही
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