आस्था के बुत
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हर शहर की
हर गली में
कुछ बुतखाने और
कुछ इबादतखाने होते हैं
जहां लोग
अपनी अपनी
आस्था के बुत
बना देते हैं
अपने अपने
रस्म-ओ-रिवाजों से
उनको सजा लेते हैं
बाकी दुनिया के
धर्म कर्म से फिर
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हर शहर की
हर गली में
कुछ बुतखाने और
कुछ इबादतखाने होते हैं
जहां लोग
अपनी अपनी
आस्था के बुत
बना देते हैं
अपने अपने
रस्म-ओ-रिवाजों से
उनको सजा लेते हैं
बाकी दुनिया के
धर्म कर्म से फिर
वो बेमाने होते हैं
धीरे धीरे
इस कदर
खो जाते हैं
सतही इबादत में, कि
अपने धर्म कों
अपने ईमान से
सींचने कि बजाय
रंग देते हैं
उनके खून से
जो उनके मज़हब से
बेगाने होते हैं
आस्था के बुत
बनाते बनाते
उन्हें मालूम ही नहीं चलता
कि वो खुद कब
बुत बन जाते हैं
धीरे धीरे
इस कदर
खो जाते हैं
सतही इबादत में, कि
अपने धर्म कों
अपने ईमान से
सींचने कि बजाय
रंग देते हैं
उनके खून से
जो उनके मज़हब से
बेगाने होते हैं
आस्था के बुत
बनाते बनाते
उन्हें मालूम ही नहीं चलता
कि वो खुद कब
बुत बन जाते हैं
रजनी छाबड़ा