Sunday, November 3, 2024

अपना अपना अंदाज़

 




अपना अपना अंदाज़ 


कोई अश्क़ समेटे रखता है आँखों में 

कोई दरिया बहा देता है अश्क़ों का 


कोई साँस लेने को ही ज़िन्दगी समझता है 

कोई ज़िंदादिली से जीने को ज़िन्दगी मानता है 


तितलियों की शोख अठखेलियां लुभाती किसी को 

और सहेज लेता उनकी यादें मन में 

कोई तितलियों के शोख रंग सहेजता कैनवास पर 

और सांझा करता इन खुशियों को जग-ज़ाहिर कर 


अपना अपना अंदाज़ हैं जीने का 

किसी को प्रिय है केवल निजता 

किसी को भाती सार्वजनिकता /


रजनी छाबड़ा 

4 /11/2024 

12. 15  p .m 

Monday, October 28, 2024

शुभकामनाएँ

शुभकामनाएँ

सादर आभार आपका।

आपसे परिचय ही असाधारण  बात होती, मित्रता तो मेरा परम सोभाग्य  है।

आप अनुभूति, संवेदना के स्तर पर दृश्य  भाव  बिम्ब  को जीती, तदुपरांत  सबकुछ  शब्दों में जीवंत  होता है: नहीं  तो भला हिमखंड  के पिघलने का एहसास  कहाँ!

महामारी से आक्रांत  शरीर होता है,  फिर  भी आप मृत्यु से संवाद  करती हैं।

आज स्व-प्रशंसा  स्वाभाविक  प्रचलन हो गया हैं और आप यहाँ भी अनुवादक,  प्रकाशक, संपादक  व सभी सहयात्रियों का  कृतज्ञाभाव  से उल्लेख  करती हैं: कृतज्ञाभाव से जीने वालों की संभावनाओं  की इतिश्री  नहीं होती।

यही प्रार्थित  है कि आपकी रचना यात्रा अहर्निश  जीवंत  रहे।

अनंत हार्दिक शुभकामनाएँ निवेदित हैं

Ram Sharan Agarwal 

Tuesday, October 22, 2024

ख़ामोशी

 



ख़ामोशी 
*******
निराश कर देती है 
तुम्हारी खामोशी यदा -कदा 
अचम्भित हो जाती हूँ मैं देखकर 
तुम और तुम्हारा व्यवहार 
मेरे और मेरी घटनाओं  के प्रति 
मैं विश्लेषण करती हूँ 
अवलोकन करती हूँ 
तुम्हारा और तुम्हारे शब्दों का 
कभी कभी अनुभव करती हूँ 
तुम्हारी अनुनाद 
कभी कभी एहसास होता है 
तुम्हारी निराशा का 
मुझे अंदाज़ होता है 
तुम्हारे दोहरे व्यक्तित्व का 
कभी कभी में पाती हूँ तुम्हे 
कुछ उलझा उलझा सा 
कभी द्वैधता झलकती है 
तब, मैं तुमसे आशा करती हूँ 
विनम्रता की 
अवहेलित होने पर 
उम्मीद रखती हूँ 
तुम्हारी कृपा दृष्टि की 
विनम्र पृथक पक्वता के साथ 
फिर भी, तुम प्राथमिकता देते हो यदि 
मौन शरीर संरचना को 
मैं प्रतीक्षा करती हूँ 
तुम्हारी प्रतिक्रिया की 
मैं प्रयत्नशील रहती हूँ 
फिर से पाने को तुम्हारा ध्यान 
अगर भाग्य साथ दे जाये 
मैं आश्वस्त हो जाती हूँ 
तुम्हारा ध्यान पाने की उपलब्धि के प्रति/
   

लोपमुद्रा मिश्रा के मूल इंग्लिश कविता योउर साइलेंस का  मेरे द्वारा हिंदी अनुवाद 
रजनी छाबड़ा 
22 / 10 /2024 


Wednesday, October 16, 2024

बीजी को समर्पित


 बीजी को समर्पित 

*************

आपका मातृत्व 

 जिस के  स्नेह का 

न कोई ओर -छोर 

निश्छल प्रेम से करती 

सभी को आत्म-विभोर 


कौन समझायेगा हमें अब 

जीने  के दस्तूर 

ज़िंदगी का अक्स दिखाने वाला 

आईना न रहा 

घर आँगन में 

प्यार-बयार महकाने वाला 

वट-वृक्ष न रहा/


रजनी छाबड़ा 

15 /10 /2024  





Friday, September 27, 2024

विलुप्त



विलुप्त 

*****


 वक़्त की ठहरी हुई झील में 

जमने लगी है काई 

विलुप्त होती जा रही 

अतीत की परछाई 


रजनी छाबड़ा 

२७/९/२०२४ 

भोर की पहली किरण


 लम्बे अर्से के बाद रची गयी एक कविता आप सभी सुधि  पाठकों के साथ सांझा कर रही हूँ /आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी/


भोर की पहली किरण 

****************


 मैं कोई कवि नहीं 

महसूस करो मेरे भावों को 

और रच दो कविता 


मैं  कोई गीतकार नहीं 

गुनगुनाओ मुझे 

और गीत बना दो 


मैं  कोई शिल्पकार नहीं 

कच्ची माटी हूँ 

घड़ लो मुझे 


बहना चाहती हूँ 

गुनगुनाते झरने सा 

अवरोधों को हटाओ तुम 


उड़ना चाहती हूँ 

उन्मुक्त पाखी सी 

पिंजरा बनाना छोड़ दो तुम 


टिमटिमाते तारों सी 

मेरी ज़िंदगी के आकाश पर 

उजला चाँद बन आओ तुम 


अमावसी निशांत 

की आस 

भोर की पहली किरण 

बन जाओ तुम  /

@रजनी छाबड़ा 

27/9/2024



Wednesday, June 26, 2024

असर

 


असर 

*****

रेत सुबह से लेकर 

रात के आख़िरी प्रहर तक 

कई रंग बदलती 


सूरज के संग रहती 

सुनहरी रंगत पाती 

पूरा दिन 

तपती -सुलगती 


चाँद के संग रहती 

पूरी रात 

ठंडक  पाती 

ठंडक बरसाती     


  झरना बहता जब पहाड़ों से 

  उजली रंगत लिए 

 शीतल, मीठे  जल से 

  सबकी प्यास बुझाये 

  

पहुंचता जब मैदान में 

नदी के स्वरूप में 

वही पानी गंदला हो जाये 

झरने का पानी 

अपनी मिठास गंवाए 


सोन -चिरैय्या उड़ती जब

खुले आसमान में 

आज़ादी के गीत गुनगुनाये 

क़ैद हो जाये जब पिंजरे में 

सभी गीत भूल जाए/

- रजनी छाबड़ा