क्या शिकवा करें गैरों से
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काश! अपना कह देने भर से
बेगाने अपने होते,तो
अनजान शहर मैं भी
अजनबी लोगों से घिरे
आँखों मैं खुशनुमा सपने होते
क्या शिकवा करें गैरों से
अक्सर ,अपने ही शहर मे,
अपने अपने नहीं होते
अक्सर अपने बेगानों सा
मिला करते है,
"क्यों खफा रहते है
आप हमसे"
उस पर ,यह गिला करते हैं
अब कहाँ जाये
यह बेचारा दिल
तन्हाई का मारा दिल
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