9. बरबस
याद आता है बरबस
वो रूठना, मनाना
वो तकरार
कितना प्यारा
अंदाज़ था वो
प्यार का
मिल रहा सब से
स्नेह और दुलार
फिर भी मन तरसता है
उस तकरार को
10.मन विहग
आकुल निगाहें
बेकल राहें
विलुप्त होता
अनुपथ
क्षितिज
छूने की आस
अतृप्त प्यास
तपती मरुधरा में
सावनी बयार
नेह मेह का बरसना
ज़िन्दगी का सरसना
भ्रामक स्वप्न
खुली आँख का छल
मन विहग के
पर कतरना
यही
यथार्थ का
धरातल
11. सिर्फ़ अपना
खुशियों पर अक्सर
ज़माने का पहरा होता है
गम सिर्फ अपना होता है
जब बहुत गहरा होता है
12. घर और मकान
जिस शहर में
मेरा घर
मेरा आब-ओ-दाना
वही मेरे लिए
ज़न्नत सा
आशियाना
जिस शहर में
मेरा मकान
और जीने का सामान
वहाँ सबब ज़िंदगी का
पर तन्हाई का ठिकाना
13. मकड़ी सम
ज़िन्दगी की आपाधापी में
इंसान इस कदर व्यस्त हो गया है
उसका खुद का वक़्त
कहीं खो गया है
रोज़मर्रा की
जोड़ तोड़ में उलझ गया है
ज़िंदगी का गणित
ज़िन्दगी में अब पहले सी
लज़्ज़त नहीं
दिन भर की उलझनों के बीच
सिर्फ एक वक़्त ही
उसका अपना है
ऑफिस से घर तक का सफ़र
जब वह खुले छोड़ देती है
दिमाग़ के ख्याली घोड़े
सोचती है कुछ फुर्सत मिलें
बिताएंगी मनपसंद ढंग से
कुछ दिन थोड़े
पर फुर्सत के लम्हे
मिलते ही नहीं
शिक़ायत करे भी
तो किस से
वो बेचारी
अपने इर्द गिर्द
व्यस्तता के ताने बाने बुनती
खुद अपने ही जाल में
मकड़ी सम उलझी नारी
14 दिल ढूंढता है
दिल ढूंढता है
फिर वही फुर्सत के रात दिन
गुनगुनाती फ़िज़ाएं
कुनमुनाती धुप
सुकून का बोलबाला
और हाथ में गर्म चाय का प्याला
मेहरबान रहे बस यूँ ही ऊपरवाला
15. सिमटते पँख
पर्वत, सागर, अट्टालिकाएं
अनदेखी कर सब बाधाएं
उन्मुक्त उड़ने की चाह को
आ गया है
खुद बखुद ठहराव
रुकना ही न जो जानते थे कभी
बँधे बँधे से चलते हैं वहीँ पाँव
उम्र का आ गया है ऐसा पड़ाव
सपनों को लगने लगा है विराम
सिमटने लगे हैं पँख
नहीं लुभाते अब नए आयाम
बँधी बँधी रफ़्तार से
बेमज़ा है ज़िंदगी का सफर
अनकहे शब्दों को
क्यों न आस की कहानी दें दे
रुके रुके क़दमों को
फिर कोई रवानी दें दे
16. बेमानी ज़िंदगी
ज़िंदगी यकायक जब
लगने लगे बेमानी
थम जाये
अचानक रवानी,
समझ लीजिए,
आप बनते जा रहे हैं
बीती कहानी
बीती कहानी बनने से
बेहतर है
इन्द्रधनुष के
आख़िरी सिरे का
रक्तिम रंग ले कर
ज़िंदगी को फिर से
आस के रंगों से सजाना,
प्रयास और विश्वास के
दीप जलाना /
17.अभी जीने दो
अभी जीना है मुझे
सुलझाने हैं
ज़िन्दगी के कुछ
पेचीदा ख़म
तुम गर
आ भी जाओ
ओ यम !
कुछ देर के लिए
जाना थम
18. क्या शिकवा करें गैरों से
काश! अपना कह देने भर से
बेगाने अपने होते, तो
अनजान शहर में भी
अजनबी लोगों से घिरे
आँखों में खुशनुमा सपने होते
क्या शिकवा करें गैरों से
अक्सर, अपने ही शहर मे
अपने अपने नहीं होते
अपने ही बेगानों सा
मिला करते है,
"क्यों खफा रहते है
आप हमसे"
उस पर, यह
गिला करते हैं
अब कहाँ जाये
यह बेचारा दिल
तन्हाई का मारा दिल
19. पुल
इंसान इंसान के बीच
एक अजनबीपन सा क्यों हैं
क्यों समेटे रखते हैं हम खुद को
अपने ही बनाये किले में
बना लेते हैं अपने इर्द गिर्द
कछुए सा एक सुरक्षा कवच
असुरक्षा और अविश्वास से भरे
सहमे सहमे, डरे डरे
एक बार, हाँ, सिर्फ एक बार
कर जाओ पार
अविश्वास की दीवार
गैरों से सुख दुःख सांझे कर
गिरा दो दूरियों की दीवार
तुम वह ईंट बन कर देखो
जो दीवार में नहीं
पुल में लगाई जायेगी
जीने की रीत, तुम्हे
खुद बखुद आ जायेगी
20.मन के बंद दरवाज़े
इस से पहले कि
अधूरेपन की कसक
तुम्हे कर दे चूर चूर
ता उम्र हँसने से
कर दे मज़बूर
खोल दो
मन के बंद दरवाज़े
और घुटन को
कर दो दूर
दर्द तो हर दिल में बसता है
दर्द से सबका पुश्तैनी रिश्ता है
कुछ अपनी कहो ,कुछ उनकी सुनो
दर्द को सब मिलजुल कर सहो
इस से पहले कि दर्द
रिसते रिसते, बन जाये नासूर
लगाकर हमदर्दी का मरहम
करो दर्द को कोसों दूर
बाँट लो, सुख दुःख को
मन को, जीवन को
स्नेहामृत से कर लो भरपूर
खोल दो मन के बंद दरवाजे
और घुटन को कर
21 .लुत्फ़
पतझड़ में
बहारों की ग़ज़ल गुनगुनाईये
यूं खारों में
फूलों का लुत्फ़ उठाईये
22. दूरी
या खुदा!
कभी भी रिश्तों में
न लाना ऐसी दूरी
कि ज़िंदगी
बन जाये
फक्त
आख़िरी सांस तक
जीने की मज़बूरी
23 . मन का क़द
या खुदा!
मेरे मन के क़द को
कभी न होने देना बौना
मेरे जज़्बात को
कभी न बनने देना
दुनिया के लिए खिलौना
24 . काफ़ी है
एक ख़्वाब
बेनूर आँख के लिए
एक आह
खामोश लब के लिए
एक पैबंद
चाक़ जिगर
सीने के लिए
काफी हैं
इतने सामान
मेरे जीने के लिए
मुझ से कैसी होड़ पतंग कीमैं पंछी खुले आसमान कासकल विस्तार निज पंखों से नापाडोर पतंग की पराये हाथोंउड़ान गगन कीआधार धरा का
26. मन की तरंगे
मन की तरंगे
सागर की लहरों सी
गिनना मुमकिन नहीं
27 . बन्दग़ी
एहसास कभी मरते नहीं
एहसास ज़िंदा हैं
तो ज़िंदगी है
वक़्त के आँचल में सहेजे
लम्हा लम्हा एहसास
ख़ुदा की बन्दग़ी हैं
28. साँझ के अँधेरे में
साँझ
के झुटपुट
अंधेरे में
दुआ के लिए
उठा कर हाथ
क्या
मांगना
टूटते
हुए तारे से
जो अपना
ही
अस्तित्व
नहीं रख सकता
कायम
माँगना ही है तो मांगो
डूबते
हुए सूरज से
जो अस्त हो कर भी
नही होता पस्त
अस्त होता है वो,
एक नए सूर्योदय के लिए
अपनी स्वर्णिम किरणों से
रोशन करने को
सारा ज़हान
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29 .
फूल और कलियाँ
एक भी पल के लिए, ओ बागवान
अपने खून पसीने से सींची कली को
न आँख से ओझल होने देना
एह्साह भी न हुआ ही जिसे कभी
तेज़ हवाओं के चलन का
घिर जाये,अचानक किसी बड़े तूफ़ान में
अंदाज़ लगा सकोगे क्या, उसकी चुभन का
फूल बनने से पहले ही
रौंद दी जाती है कली
यह कैसा चलन हुआ
आज के चमन का
आदम और हवा के
वर्जित फल खाने के कहानी का
जब जब होगा दोहरान
आधुनिक पीड़ी चढ़ती जायेगी
बर्बरता की एक और सोपान
और चमन, यूं ही
बनते जायेंगे वीराने
फूल और कलियों के जीवन
रह जाएंगे, बन कर अफ़साने /
.
30. यह कैसा नाता है
तुमसे कैसा यह नाता हैखुशियाँ तुम्हें मिलती है
दामन मेरा भर जाता है
करवटें तुम बदलते हो
सुकून मेरा छिन जाता है
आहत तुम होते हो
आब मेरी आँखों में
उभर जाता है
तुम्हारी आँखों से
अश्क़ छलकने से पहले
अपनी पलकों में समेटने को
जी चाहता है
अठखेलियां करती
लहरों में
क्यों तेरा अक्स नज़र आता है
खामोश फिज़ाएँ
गुनगुनाने लगती हैं
तेरा ख़याल
मुझ में रम जाता है
कानों में सुरीली
घंटियाँ सी बजती है
जब तेरी आवाज़ का
जादू छाता है
ज़िन्दगी का आधा खाली ज़ाम
आधा भरा नज़र आता है
अनाम रिश्ते को
नाम देने की कोशिश में
शब्दकोष रीत जाता है
तुम्ही कहो ना
तुमसे यह कैसा
नाता है
31 . आस्था के बुत
हर शहर की
हर गली मेँ ,
कुछ इबादतखाने और
कुछ बुतखाने होते हैं
जहाँ लोग
अपनी अपनी
आस्था के बुत
बना देते हैं
अपने अपने
रस्म-ओ-रिवाजों से
उनको सजा लेते हैं
बाकी दुनिया के
धर्म कर्म से फिर
वो बेमाने होते हैं
धीरे धीरे
इस कदर
खो जाते हैं
सतही इबादत में, कि
अपने धर्म को
अपने ईमान से
सींचने कि बजाय
रंग देते हैं
उनके खून से
जो उनके मज़हब से
बेगाने होते हैं
आस्था के बुत
बनाते बनाते
उन्हें मालूम ही नहीं चलता
कि वो खुद कब
बुत बन जाते हैं
32. राजभाषा
बैंक में भुगतान देते समय
पुकारा गया महिला का नाम
'राजभाषा 'नाम सुन कर
मिला मन को बहुत आराम
आपसे तो देश की शान
आप न हो तो
हिन्द देश की क्या पहचान
भुगतान लेते वक्त
उसने लगायी, अंगूठे की छाप
आहत मन ने किया विलाप
विधि का यह कैसा खेल
नाम और गुण का
नहीं कोई मेल
लिए मन में
उसे पढ़ाने की अभिलाषा
माँ, बाप ने
नाम रखा होगा राजभाषा
परिस्थितियों ने किया
राजभाषा का यह कैसा उपहास
अक्षर ज्ञान नहीं फटक पाया
उसके आस पास
33 .कहाँ गए सुनहरे दिन
**********************
कहाँ गए सुनहरे दिन
जब बटोही सुस्ताया करते थे
पेड़ों की शीतल छाँव में
कोयल कूकती थी
अमराइयों में
सुकून था गावँ में
कहाँ गए संजीवनी दिन
जब नदियां स्वच्छ शीतल
जलदायिनी थी
शुद्ध हवा में सांस लेते थे हम
हवा ऊर्जा वाहिनी थी
34 . तपते पत्थरों पर जीवन से भेंट
***********************************************
शहर के दो नन्हे पाखी
न नीड़
न तरु
और न ही
माँ का साया
यह कैसा दौर आया
सूने फर्श पर ही
बसेरा बनाया
कभी कभी
दो क़तरे नेह के
दे जाते हैं
सागर सा एहसास
कभी कभी
सागर भी
प्यास बुझा नहीं पाता
जाने यह प्यास का
कैसा सिलसिला
कैसा यह नाता
36. ऊँची उडान
मन था अब तक भरमाया
पिंजरा ही है
मेरा घर
दिल को अब तक समझाया
उभरी हैं मन में चाहत
उन्मुक्त पंख पसारने की
मुझे चाहिए ऊँची उड़ान
सरहद के पार
मुझे चाहिए राहत
37. रात के स्याह अँधेरे में
रात के स्याह अँधेरे में
एक नारी देह
धराशायी हुई
बहु-मंज़ली ईमारत से
और लग गया जमघट
शुरू हो गया
क़यासों का सिलसिला
यह आत्महत्या है
या जघन्य हत्या
बिना कुछ जाने
क़यास लगाये जाते है
एक निरीह अबला आत्महत्या करे
तब भी दोष उसी के सर मढ़ा जाता है
“ऐसा आत्मघाती कदम उठाने से पहले
अबोध बच्चों का तो कुछ सोचती”
जिसके कारण यह हालात बने
उस पर कोई ऊंगली क्यों नहीं उठाता
अंततः जब तहकीकात बताती है
“दोषी पुरुष था”
सभ्य समाज
विरोध के स्वर क्यों नहीं गूँजाता”?
क्या कभी किसी ने
ऐसा भी सोचा है?
वैवाहिक रिश्तों में
दरार और तकरार
लाता हैं मासूम संतान पर
तबाही का अम्बार
कोई जान से गया
और कोई सलाखों के पीछे गया
बच्चों को अनाथ कर के
दुश्वारियों की विरासत दे गया
***************
38. पिघलते हिमखंड
पिघलते हैं
हिमखंड
सर्द रिश्तों के
तुम, प्यार सने
विश्वास की
उष्णता
दे कर तो देखो
39. आस का पंछी
मन एक आस का पंछी
मत क़ैद करो इसको
क़ैद होने के लिए
क्या इंसान का तन कम है
40. कहीं भी
कहीं भीकिसी भी वक़्त
जड़ से उखाड़ कर
नए सिरे से
ज़मीन में
उगा लो
फिर से
नयी ज़मीन में,
रच बस कर
खिल ही जाती है
बिच्छूबूटी
अपनी रंग बिरंगी
शान के साथ
काश, जीने की यह कला
हमें भी आ जाती/
41 . कैसे भूल सकते हैं
हम भूल सकते है उन्हें
जिन्होंने कहीं संग हमारे
हमारे सुख में
लगाये हो कहकहें
कैसे भूल सकते हैं उन्हें,
जिन्होंने हमारे दुःख में
बहाये हो आसूँ अनकहे
42 . नम आँखों से
फ़क़्त नज़रों से दूर रहने से
कभी दिल से दूर हुआ है कोई
खामोश लब रहें, तो आँखें बोलती हैं
हालात -ए -दिल बयाँ करने से, मज़बूर रहा है कोई
तेरी यादों से खाली गया न दिन कोई
यह सिलसिला रातों को भी थाम सका है कोई
नम आँखों से तुझे याद करती हूँ हर दम
यादों की रवानी रोक सकता हैं कोई
43. मातृत्व
मातृत्व का अर्थ
जीवन का विस्तार
स्नेह, प्यार, आधार
विश्वास अपरम्पार
त्याग, सामंजस्य का भण्डार
सृजन से, विलीन होने तक
इस ममत्व का कभी न होता अंत
माँ जाने के बाद भी
आजीवन बसर करती अनंत
44. अनकही कहानी
मैं लिखती नहीं
कागज़ पर
मेरे जज़्बात
बहते हैं
कह न पायी
जो कभी दबे होंठों से
वही अनकही
कहानी कहते हैं
45 . क्या तुम सुन रही हो, माँ
माँ,तुम अक्सर कहा करती थी
बबली,इतनी खामोश क्यों हो
कुछ तो बोला करो
मन के दरवाज़े पर दस्तक दो
शब्दों की आहट से खोला करो
अब मुखर हुई हूँ,
तुम ही नहीं सुनने के लिए
विचारों का जो कारवां
तुम मेरे ज़हन में छोड़ गयी
वादा है तुमसे
यूं ही बढ़ते रहने दूंगी
सारी कायनात में तुम्हारी झलक देख
सरल शब्दों की अभिव्यक्ति को
निर्मल सरिता सा
यूं ही बहने दूंगी
मेरा मौन अब
स्वरित हो गया है/
क्या तुम सुन रही हो, माँ
46.खिलौनों सरीखे
या! खुदा
हर घर में
खिलखे
बच्चे दे
खिलौने दे
सुख की नींद
और बिछौने दे
ममता की छाँव
और सपने सलोने दे
किलकिलाते रहें
खिलखिलाते रहे
आँखों में आसूँ
न कभी होने दे
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47. सतरंगी ख़ुशी
हर मौसम में
फुटपाथ पर खड़ा
वह कच्ची उम्र का बालक
बेचता है सतरंगी गुब्बारे
और बिखेरता है
खुशियों के रंग
बच्चे उछलते कूदते है
थामे गुब्बारे नन्हे हाथों में
गुब्बारे उसे भी ललचाते है
पर क्या वह कभी
स्वंय के लिए भी
खरीद पायेगा
निर्धनता एक अभिशाप है
सतरंगी सपनो को
चकनाचूर करने वाला
उसे बचानी है
एक एक पाई
लाने के लिए
रुग्ण माँ की दवाई
छोटे भाई की खातिर
एक प्याला दूध
रोज़ जुटाना है
खुद को बस
काम मैं खटाना है
इन्ही विचारों में उलझी
मैं उस से कुछ गुब्बारे खरीद
थमा देती हूँ उसके नन्हे हाथों में
यह छोटा सा उपहार
उसके मासूम चेहरे पर
झलका उल्हास
मुझे भी देता है
सतरंगी खुशी का आभास
48 . रेत की दीवार
***************
ज़िन्दगी रेत की दीवार
ज़माने में
आँधियों की भरमार
जाने कब ठह जाये
यह सतही दीवार
फ़िर भी, क्यों ज़िंदगी से
इतना मोह, इतना प्यार
४९. सहमी सहमी
****************
मौत जब बहुत करीब से
आकर गुज़र जाती है
दहशत का लहराता हुआ
साया सा छोड़ जाती है
सहमी सहमी से रहती हैं
दिल की धड़कने
दिल की बस्ती को
बियाबान सा छोड़ जाती है
50 . फुर्सत
ज़िन्दगी ने तो मुझे
कभी फुर्सत न दी
ऐ मौत !
तू ही कुछ मोहलत दे
अता करने है अभी
कुछ क़र्ज़ ज़िंदगी के
अदा करने हैं अभी
कुछ फर्ज़ ज़िंदगी के
अधूरी हैं तमन्ना अभी
मंज़िल को पाने की
पेशतर इसके कि
खो जाऊं
गुमनुमा अंधेरों में
चंद चिराग़
रोशन करने की
ऐ मौत! तू ही
कुछ मोहलत दे/
ज़िंदगी ने तो मुझे
कभी फुरसत न दी
ऐ मौत! तू ही
कुछ मोहलत दे
51. पक्षपात
दोष लगेगा
उस पर
पक्षपात का
गर ज़रा सा
भी दुःख
न वह देगा मुझे
मैं भी तो
एक ज़र्रा हूँ
उसकी कायनात
का
उसी कारवां
की एक मुसाफिर
सुख दुःख की
छावों मैं
चलते हैं
जहां सभी
अछूती रही
गर
दुनिया के
दस्तूर से
क्या
रूस्वाँ न होगा
मेरा
मुक्कदर
लिखने वाला
52 . इन दिनों
ज़िन्दगी की आपाधापी में
उलझा इन्सान , इन दिनों
विषम परिस्थितयों से उंबरने की
स्वयं तलाशता हैं राह
कोविड के इस दौर में
नहीं रह सकता किसी के सहारे
मनोबल ही उसका सच्चा सहारा
उसकी अचूक ढाल
जिस से दुःख करता हैं किनारा
53 . ठहरा पानी
वक़्त की झील का
ठहरा पानी
कोई लहरें नहीं
न हलचल , न रवानी
कोई सरसराती
गुनगुनाती
हवा नहीं
कोई चटक धूप
न कोई दैवीय अनुभूति
न मंदिरों से
कोई मंत्रों की गूंज
ज़िन्दगी कुछ ऐसी ही
बेरंग हो गयी है
कोरोना काल में
मन तरसता है
बच्चों को स्कूल जाते हुए
देखने के लिए
या पार्क में
मौज़ मस्ती से खेलते हुए
मन तरसता है
सुनसान पड़ी सड़कों पर
फिर से उमड़ता
यातायात देखने के लिए
शॉपिग कॉम्प्लेक्स के
फिर से देर रात तक
व्यस्त रहने की झलक के लिए
आमजन घूम सके उन्मुक्त
घर की कैद से होकर मुक्त
अपने प्रियजन से , चाह कर भी
न मिल पाने की मज़बूरी
न जाने कब दूर होगी
यह कसक, यह दूरी
मैं करती हूँ प्रभु को आह्वान
लौटा दे हमें , वो बीते दिन
तन -मन की आज़ादी
बीते वक़्त का कर दे दोहरान
54 . वीरान बाग़
फूलों से लहलाहते बाग़ में
फूलों सरीखे नाज़ुक, शोख
किलकारते बच्चे खेला
करते थे
झूले कम पड़ जाते थे
और
खेलने की जगह भी
सीमित सी
सुनसान, वीरान सा वही बाग़
सूनी
आँखों से इंतज़ार करता है उनका
झूलों
की बारी के लिए अब कोई होड़ नहीं
कोई
छुप्पा छुपी, पकड़न पकड़ायी, कोई
दौड़ नहीं
सूना पड़ा, उदास सा बाग़
बरबस याद दिलाता है
मुझे
१९६४ में स्कूल में
पढी गयी
स्वार्थी दानव की
कहानी
लॉकडाउन से थम सी गयी
है
बचपन की रवानी
55 काँच की दीवार
***************
ऐन आँखों के सामने खड़े हैं वे
काँच की दीवार के उस पार
छू नहीं सकती
निहार सकती हूँ
पूरे होश ओ हवास के साथ
उनकी आँखों में उमड़ता
प्यार का सागर
यह नियामत क्या कम है
मेरे लिए, मेरे पालनहार
56 ज़िन्दगी के धागे
****************
विश्वास के धागे
सौंपे हैं तुम्हारे हाथ
कुछ उलझ से गए है
सुलझा देना मेरे पालनहार
तुम तो हो सुलझे हुए कलाकार
पर इन दिनों
वक़्त ही नहीं मिलता तुम्हे
बहुत उलझ गए हो
सुलझाने में
दुनिया की उलझने बेशुमार
मेरे लिए भी
थोड़ी फुर्सत निकालो ना
टूटने पाया न विश्वास मेरा
तुम्ही कोई राह निकालो ना
कहते हैं दुनिया वाले
खड़ी हूँ
ज़िंदगी और मौत की सरहद पर
तुम्हीं हौले हौले
ज़िंदगी की ओर सरका दो ना
ज़िंदगी हमेशा हसीन लगी हैं मुझे
लिए यही खुशगवार एहसास
रहने दोगे न अपनों के संग
क्या अब भी कर लूँ
तुम पर यह विश्वास
( आई सी यू , मैक्स हॉस्पिटल में सोची गयी चंद पंक्तियाँ , जो अब कलमबद्ध की हैं )
57 . शतरंज
ज़िन्दगी शतरंज की बिसात
सामने हैं पेचीदा ख़म
देखें कौन जीतता है बाज़ी
बेताज़ राजा कोविड
या अदना सिपाही हम
58 . वीराँगना
आज की नारी, अबला नहीं
जो विषम परिस्थितियों से मान ले हार
ठान लेती है, जब जूझने की
मदद करता है उसकी
दुनिया का पालनहार
पति घर में कोविड -ग्रस्त क़्वारंटाइंड
सासु माँ को कोविड का तीव्र आघात
इन सब का मूक दर्शक, घर में बालक अबोध
जिसने देखा है अब तक ज़िंदगी का प्रभात
क्या करे अब घर की बहू - रानी
परीक्षा की इस विकट घड़ी में
ख़ुद ही स्थिति सँभालने की ठानी
एम्बुलेंस उपलब्ध नहीं
निज वाहन में सासु माँ को साथ ले
भटकती फिर रही अस्पताल -दर -अस्पताल
कोविड के इस भयानक दौर में
उपलब्ध नहीं सहजता से कोई भी बैड
दो बार बेरंग लौटाए जाने के बाद
बिना हिम्मत हारे
अब तीसरे अस्पताल में
उलझ रही है मेडिकल स्टाफ से
बेकार गए हैं अब तक मिन्नत और मनुहार
अंतत कुछ अपनों के सहयोग
परमात्मा की आशीष
और स्वयं के मनोयोग से
कामयाब हो जाती है
माँ को भर्ती करवाने में
दिन से निकली, देर रात तक लौट आती हैं घर
फिर सूचना पाता है उस से , ननद का परिवार
जो रवाना हो जाता है दूसरे शहर से तत्काल
और सम्भलने लगता है उसका बिखरा -बिखरा संसार
आपदा की इस घड़ी में
बहू फ़र्ज़ निभाती हैं बेटी और बेटे जैसा
खुद परेशानी झेल कर भी
नहीं आने देती विपदा
वीरांगना तो बस वीरांगना ही है
वक़्त और दौर चाहे जो भी हो
ज़िंदगी के इस रणक्षेत्र में
युद्ध भूमि बदली है
कर्म भूमि नहीं
कर्मयोगी कभी नहीं हारते
कंटीली राहों को रौंदते
गुलाब जैसी शान से
घर -आँगन हैं महकाते
60 .गुलाब सी शान
वक़्त के अंधेरों से
मत घबरा,ऐ मन
बादलों के
आख़िरी छोर पर
झलकती बिजली का
तू कर आंकलन
खिलती है जब
शबनमी धूप
सर्द हवाओं के बाद
उसकी नाज़ुक नाज़ुक
छुअन से होता है
गुलशन का
कोना कोना आबाद
सुख और दुःख
संग संग सहने में ही
जीवन की सहजता है
काँटों का लम्बा सफर
तय कर के ही
ग़ुलाब शान से
महकता है/
61. आस की कूची
आस की कूची से
ज़िंदगी के कैनवास पर
आओ कुछ चित्र उकेरे
खुशियों के रंग बिखेरें
प्यार की लालिमा सा रक्तिम
और सुनहरे दिनों सा पीला रंग
अम्बर से विस्तार का नीला
और खुशहाली का हरा रंग
सपनों का नारंगी और
मन आँगन की शुचिता का धवल रंग
दूर रहे बैंजनी विषाद
जीवन सब का रहे आबाद
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