Thursday, July 15, 2021

                      इन दिनों 

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ज़िन्दगी  की आपाधापी में

 उलझा इन्सान , इन दिनों 

विषम परिस्थितयों  से उंबरने की 

स्वयं तलाशता हैं राह 

कोविड के इस दौर में 

 नहीं रह  सकता किसी के सहारे 

मनोबल  ही उसका सच्चा सहारा 

उसकी अचूक ढाल 

जिस से  दुःख करता हैं किनारा

रजनी छाबड़ा 


ठहरा पानी 

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वक़्त की झील का 

ठहरा पानी 

कोई लहरें नहीं

न हलचल , न रवानी 

 

कोई सरसराती 

गुनगुनाती 

हवा नहीं 

कोई चटक धूप 

न कोई दैवीय अनुभूति 

न मंदिरों से 

कोई मंत्रों के गूंज 

 

ज़िन्दगी कुछ ऐसी ही 

बेरंग हो गयी है 

कोरोना काल में 

 

मन तरसता है 

बच्चों को स्कूल जाते हुए

देखने  के लिए

 या पार्क में 

मौज़ मस्ती से खेलते हुए 

 

मन तरसता है 

सुनसान पड़ी  सड़कों पर 

फिर से उमड़ता 

यातायात देखने के लिए 

शॉपिग कॉम्प्लेक्स के 

फिर से देर रात तक 

व्यस्त रहने की झलक के  लिए 

 

आमजन  घूम सके उन्मुक्त 

घर की कैद से होकर मुक्त 

अपने प्रियजन से , चाह कर भी 

न मिल पाने की मज़बूरी 

न जाने कब दूर होगी 

यह कसक, यह दूरी 

 

मैं करती हूँ प्रभु को आह्वान 

लौटा दे हमें , वो बीते दिन 

तन -मन की आज़ादी 

बीते वक़्त का कर दे दोहरान /

 

रजनी छाबड़ा

 ज़िन्दगी के धागे 
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विश्वास के धागे 
सौंपे हैं तुम्हारे हाथ 
कुछ उलझ से गए है 
सुलझा देना मेरे पालनहार 

तुम तो हो सुलझे  हुए कलाकार 
पर इन दिनों 
वक़्त ही नहीं मिलता तुम्हे 
बहुत उलझ गए हो 
सुलझाने में 
दुनिया की उलझने बेशुमार 

मेरे  लिए भी 
थोड़ी फुर्सत निकालो ना 
टूटने पाया न विश्वास मेरा 
तुम्ही कोई राह निकालो  ना 

कहते हैं दुनिया वाले 
खड़ी हूँ 
ज़िंदगी और मौत की सरहद पर 
तुम्हीं हौले हौले 
ज़िंदगी की ओर सरका दो ना 

ज़िंदगी हमेशा हसीन लगी हैं मुझे 
लिए यही  खुशगवार एहसास 
रहने दोगे न अपनों के संग 
क्या अब भी कर लूँ 
तुम पर यह विश्वास 

रजनी छाबड़ा 
बहु भाषीय कवयित्री व् अनुवादिका 

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