Friday, April 29, 2011

BAL SHRMIK

वह जा रहा है,बाल श्रमिक
अधनंगे बदन पर ,लू के थपेड़े सहते
तपती सुलगती दुपहरी मैं
सिर पर उठाये ,ईंटों से भरी तगारी

सिर्फ तगारी का बोझ नहीं 
मृत आकांक्षाओं की अर्थी
निज कन्धों पर उठाये
नन्हे श्रमिक के थके थके
बोझिल कदम डगमगाए
तन मन की व्यथा किसे सुनाये

याद  आ रहा है उसे
माँ जब मजदूरी पर निकलती और 
रखती अपने सिर पर
ईंटों से भरी तगारी
साथ ही रख देती
दो ईंटें उसके सिर पर भी
जिन हालात मैं खुद जी रही थी
ढाल दिया उसी मैं बालक को भी

माँ के पथ का 
बालक नित करता अनुकरण
लीक पर चलते चालते 
खो गया कहीं मासूम बचपन
शिक्षा की डगर पर
चलने का अवसर 
मिला ही नहीं कभी
उसे तो विरासत मैं  मिली
अशिक्षा की यही कंटीली राह

आज यही राह 
ले चली उसे
अशिक्षा सने 
अँधेरे भविष्य की ओर 
खुशहाल ज़िन्दगी की भोर
होती जा रही कोसों दूर

काश! वह,रोजी रोटी की फ़िक्र के
दायरे  से निकल पाए
थोडा वक़्त खुद के लिए बचाए
जिसमे पड़ लिख कर 
संवार ले बाक़ी की उम्र

बचपन के मरने का जो दुःख 
उसने झेला
आने वाले वक़्त मैं
वह कहानी ,
उसकी संतान न दोहराए
पड़ने की उम्र मैं श्रमिक न बने
कंधे पर बस्ता उठाये
शान से पाठशाला जाये.

रजनी छाबड़ा 




Tuesday, April 26, 2011

SAPNE HASEEN KYON HOTE HAIN

सपने हसीन क्यों होते हैं
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स्नेह, दुलार, प्रीत
 मिलन,समर्पण
आस, विश्वास  के 
सतरंगी 
ताने बाने से बुने
सपने इस कदर   
हसीन  क्यों होते हैं

कभी मिल जाते हैं 
नींद को पंख
कभी आ जाती है
पंखों को नींद
हम सोते में जागते
ओर जागते में सोते हैं
सपने इस  कदर  
हसीन क्यों होते हैं

बे नूर आँखों में  
नूर जगाते
उदास लबों पर 
मुस्कान खिलाते
मायूस सी ज़िंदगी को
ज़िंदगी का साज सुनाते
सपने इस कदर
 हसीन क्यों होते है

कल्पना के पंख पसारे
जी लेते हैं कुछ पल
इनके सहारे
अँधेरे के आखिरी छोर पर
कौंधती बिजली से यह सपने
इस कदर हसीन 
क्यों होते हैं

जिस पल मेरे सपनों पर
लग जायेगा पूर्ण विराम
मेरी ज़िंदगी के चरखे को भी
मिल जायेगा अनंत  विश्राम


रजनी 


Friday, April 22, 2011

मैं कोई मसीहा नहीं

 मैं कोई मसीहा नहीं

 मैं कोई मसीहा नहीं
जो चढ़ सकूं 
सलीब पर
हँसते हँसते 
एक  अदना इंसान हूँ मैं
मुन्तजिर हूँ मैं 
मेरे दर्द के
 मसीहा की/


रजनी छाबड़ा