Monday, August 10, 2009

लहेरें

सांझ का धुंधलका
सघन
सागेर की लहरें
और
हिचकोले लेता
तन मन
संग तुम्हारे
महसूस किया
मन ने
सागर मैं
saagar sa vistaar
असीम खुशियाँ
अनंत
प्यार
वक्त के
बेरहम
सफर
मैं
तुम, ज़िन्दगी की
सरहद
के
उस पार
सांझ के तारे
मैं

करती हूँ
तुम्हारा
दीदार
सागर आज भी वही है
वही है
सांझ का धुंधलका
सघन
हलचल नही है
लहरों
मैं
सतह लगती है
ठहरा सागर
गहरा मन
रवां
है
मन के
ashant
vicharon
ka manthan


































नजरिया

ज़िन्दगी के फिसलते लमहे
आँचल मैं न
समेत पाने की कसक
बदला नज़र आता है
वक्त का नजरिया
पूरे गिलास मैं सिमटा
आधा पानी
मन की तरंग मे दिखता
आधा भेरा
रीते लम्हों में
आधा खाली



होने से,न होने तक

होने से
न होने
तक का
अन्तराल
गहरे समेटे
अपरिमित सवाल
वापिस ही
ले लेना है
तब देते ही
क्यों हो
न मिली होती
फिरदौस
न कचोटता
लुटने का
एहसास