आदरणीय वरिष्ठ प्रख्यात साहित्यकार मेवाड़ रतन देवकिशन राजपुरोहित जी के विचार मेरे काव्य संग्रह ' पिघलते हिमखंड' के बारे में सभी सुधि पाठकों के साथ साझा करते हुए हर्षित हूँ/ गत रविवार , मेरे सद्य प्रकाशित काव्य संग्रह 'आस की कूंची' के लोकार्पण के अवसर पर जब आप मेरे बीकानेर स्थित निवास पर पधारे, मैंने अपने २ पूर्व प्रकाशित काव्य संग्रह ' होने से न होने तक' व् पिघलते हिमखंड भी भेंट किये/
आज 'पिघलते हिमखंड ' पर उनकी पाठकीय प्रतिक्रिया प्राप्त करना मेरा सौभाग्य है/
मेरे सामने एक पद्य की पुस्तक पिघलते हुए हिमखंड रजनी छाबड़ा की है।इसे रात्रि को ही पढ़ लिया था।पुस्तक में मार्मिकता के साथ साथ उपदेश भी गहरे तक चोट करते हैं।
काफी है शीर्षक में एक ख्वाब, खामोश लब ओर पैबंद के सहारे सब कुछ कह दिया गया है।
मन कभी कहीं नहीं टिकता।मन चलायमान है, ठीक बनजारों की तरह कभी यहां कभी वहा और कभी कहा।मन उन्मुक्त रूप से विचरण करता है तन से दूर जा कर,मन का सफर निरंतर जारी रहे इसे बहुत शानदार तरीके से परोसा गया है।
वीराना एक जबरदस्त पीड़ा है।मार्मिक है।जाने वाले जिंदगी की कैद से मुक्त हो जाते हैं।पीछे रह जाता है वीराना।जिसे तब तक जीना है निरर्थक तब तक जिंदगी की कैद से मुक्ति न मिले।बहुत खूब लिखा है।
सारी कविताओं पर कुछ कह देना पाठक के साथ अन्याय होगा वह फिर पुस्तक को पढ़ने की जहमत नहीं उठाएगा।
शानदार कृति के लिए बधाई। शुभाकांक्षि
देकिरापु