Tuesday, September 28, 2021

दर्द बढ़ता गया,ज्यों ज्यों दवा की



समीक्षा  :  लाइलाज़ 

विधा : उपन्यास 

लेखक : डॉ. रवीन्द्र कुमार यादव 

प्रकाशक : कलमकार मंच  , जयपुर 

पेपरबैक , मूल्य मात्र रु. 150 /-

दर्द बढ़ता गया,ज्यों ज्यों दवा की

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प्रिय पाठकों, विस्मित हो गए न आप इस शीर्षक को देख कर / परन्तु वास्तविक जीवन में कुछ ऐसा ही घटित होता है जब हम उचित ढंग से और उचित माध्यम से इलाज़ नहीं करवाते/ दर्द धीरे धीरे लाइलाज होता जाता है/

इस उपन्यास का मुख्य किरदार इंद्राज शुरू से इस अवधारणा से ग्रसित है कि यदि बीमारी को समूल नष्ट करना है तो देसी पद्धति से ही इलाज़ करवाना चाहिए/ घुटनों के दर्द की मार झेलता, अपने इलाज़ के लिए कभी नीम हकीम, कभी वैद्य और कभी आयुरपैथी के जाल में उलझता जाता है/ तांत्रिक , ओझा सभी के पास अपने दर्द के निवारण के लिए पहुंचता है/ हैअपनी सामर्थ्य से बढ़ कर उपचार के लिए खर्च करता है, परन्तु कोई भी फायदा नहीं होता / अंततः ऐलोपैथिक इलाज़ के लिए राज़ी होता है , पर तब तक दर्द लाइलाज ही जाता है/ 

इस उपन्यास के लेखक स्वयं डॉक्टर हैं और अपनी सशक्त कलम से बहुत सूक्ष्मता और गहनता से चिकित्सा जगत की बारीकियों को उजागर कर पाए है/ उपन्यास व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया है, इस कारण, उपन्यास की रोचकता और भी बढ़ गयी है/ सधे हुए व्यंग्य के साथ ही साथ , संवेदनात्मक अभिव्यक्ति का समिश्रण भी है/ इंद्राज  की ऑपरेशन के बाद बिगड़ी , नाज़ुक  हालत के मार्मिक चित्रण  से बरबस ही पाठकों की आँखों में आँसुओं का सैलाब उमड़ आता है/

 'लाइलाज'  देश भर में कुकुरमुत्तों की तरह  फैले कथित झोलाछाप चिकित्सकों के साथ साथ चिकित्सा व्यवस्था पर उंगली उठाता है/ अंधविश्वासों , टोने टोटकों , तांत्रिकों व् ओझाओं पर तो सटीक प्रहार किया ही है; साथ से साथ अस्पतालों में चलती अव्यवस्थाएं भी उनकी कलम के प्रहार से अछूती नहीं रही/ वर्तमान समय मैं  चिकित्सा जगत का सही स्वरूप इस उपन्यास के माध्यम से उकेरा गया है/ ख़ुद उपन्यासकार के शब्दों में , " मरीज़ का मर्ज़ बाहर  तंत्र मंत्र तो सरकारी तंत्र में बदहाली के चलते सदा लाइलाज़ ही रह जाता है/"

इस रोचक रचनात्मक उपन्यास को चिकित्सा व्यवस्था  की बारीकियां जानने के लिए ज़रूर पढ़ना चाहिए/ ईश्वर से प्रार्थना  है कि कलमकार डॉक्टर रवीन्द्र कुमार की लेखनी को और अधिक प्रखरता और सफलता की बुलंदियाँ दे/

रजनी छाबड़ा 

बहुभाषीय कवयित्री, अनुवादिका व् अंकशास्त्री

बीकानेर (राज.)

Monday, September 27, 2021

'ज्ञान की डगर'

                  'ज्ञान की डगर'

 माँ  की ममता संसार में सर्वोपरि है। किन्तु आदिम युग से आज तक वह पुरुषों के अनुपात में शैक्षिक दृष्टि से हाशिये पर रही हैं। वह संतान को अपने दूध से पालती, उसके विकास हेतु सदा से खुदी को भुलाकर सदैव परिवार हेतु सब कुछ न्यौछावर करती रही है।आधुनिक युग में समाज और सरकार के प्रयास से वे कुछ आगे बढ़ रही हैं।

             कवयित्री, अनुवादिका, अंकज्योतिष की मर्मज्ञ तथा अंग्रेजी, हिन्दी, पंजाबी ,राजस्थानी भाषा की विदुषी रजनी छाबड़ा "पिघलते हिमखण्ड" कविता संग्रह में नारी की भावनाओं को विविध शीर्षकों के माध्यम से रेखांकित करने में सफल हुई हैं/ इस कविता संग्रह का मैंने मैथिली में पघलैत हिमखंड नाम सेअनुवाद किया है।

                    'ज्ञान की डगर' इस काव्य संग्रह की वह रचना है जिसमें माताएँ अपनी बेटियों को पढ़ते देखकर खुद अभिप्रेरित होकर पेंसिल पकड़ लेती है।

                 कवयित्री रजनी छाबड़ा इस कविता में युग -युग से घरों में कैद बेटियों और उनकी माँओं को अक्षर के माध्यम से नयी दुनिया की ओर अग्रसर करती दिखाई देती हैं।इस कविता की गवरा,धापू, लिछमी और रामी वे पात्र हैं जो ज्ञान की डगर पर कदम जमाये तेज कदमों से शाला की ओर बढ़ती जा रही है/ यह तीव्र गति सिर्फ शाला तक पहुँचने भर की नहीं है वरन् बहन जी से गणित सीखने के  उतावले पन के कारण है।आज बहन जी उन्हें जोड़ और बाकी का सवाल बताने वाली हैं।जब  वे जोड़ बाकी सीख लेंगी तो भविष्य में दुकानदार हिसाब में होशियारी नहीं कर पाएगा।

                    अक्षर ज्ञान ऐसा ज्ञान है जिससे जीवन में लाभ ही लाभ है।दुकानदार हो या साहुकार, अक्षर ज्ञानियों को ठगने में सफल नहीं हो पाएगा।

                 गवरा, धापू, लिछमी और रामी आज गाँव की महिलाओं की प्रेरणास्रोत बन चुकी है।अब गाँव की महिलाएँ भी इन बच्चियों की तरह पढ़ना चाहती है।वे मन की बात बतलाते हुए कहती हैं कि मैं भी अनपढ़ क्यों रहूँ?

                 जब जागो तभी सवेरा। गाँव की लुगाइयाँ भी अब जग चुकी हैं। चूल्हा सुलगाती , दाल-भात राँधती , औरतों के अन्दर भी ज्ञान की चिंगारी चमकने लगी है। धधकती आग निहारती खुद भी सुलगने लगी हैं। फिर अब रुकेंगी कैसे? चूल्हे में  रखे कच्चे- कोयले सरका कर  दीवार पर ही क ख ग लिखती चली जाती है।

                  कवयित्री रजनी छाबड़ा इस कविता में औरतों के भीतर ज्ञान की आग जलाने में कामयाब होती दिखाई देती हैं यही कारण है कि आज लुगाइयाँ भी समझ रही हैं कि गुरु कोई भी व्यक्ति बन सकते हैं बस उनके पास ज्ञान होना चाहिए।

                 'धापली' शिक्षा केन्द्र पर जाने में असमर्थ है।वह अपनी बेटी को ही गुरु बनाकर ज्ञान की  राह पर चल चुकी है।

               राख में दबी चिंगारी (अक्षर ज्ञान पाने की लालसा)आज शिक्षा का महायज्ञ बन चतुर्दिक अपने यज्ञधूम से सुवासित सौरभ फैला रही  है/ गाँव की लुगाइयाँ इस यज्ञ में समिधा देती , शिक्षा पाकर खुशहाली की ओर बढ़ती जा रही है।

                  काश, कवयित्री छाबड़ा जी की नारी शिक्षा के प्रति 'ज्ञान की डगर' कविता में व्यक्त भावनाओं को यथार्थ के धरातल पर देखने का सौभाग्य प्राप्त हो।  "हम होंगे कामयाब" के मूल मंत्र के क्रियान्वयन का समय आ गया है/


डॉ शिव कुमार प्रसाद

हिन्दी विभाग,

एच पी एस काॅलेज, निर्मली, सुपौल।


Tuesday, September 21, 2021

अनुस्वार हेतु प्रश्नावली के उत्तर

 अनुस्वार हेतु प्रश्नावली के उत्तर 

 

 1.  बाल्य काल से  ही पत्रिकाएँ और उपन्यास पढ़ने में रूचि रही है/ इस शुरुआत में अपने आदरणीय  मम्मी डैडी का बहुत बड़ा योगदान मानती हूँ, जिन्होंने मुझे स्तरीय पठनीय सामग्री सदैव उपलब्ध करायी / कॉलेज में भी लाइब्रेरी में मनपसंद पुस्तकें खूब पढ़ने का अवसर मिला/ सुप्रसिद्ध  लेखिका शिवानी ,कृष्णा सोबती व् अमृता प्रीतम के उपन्यास  व् महादेवी वर्मा एवं रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचनाएँ दिल को छू जाती थी/ कभी कभी सोचती की क्या मैं भी कभी इनके जैसा कुछ रच पाऊँगी/

2. मेरी प्रथम कविता ' कमल का अरमान ' 1972 में श्रीनगर की हसीन वादियों में रची गयी  / पर एक झिझक सी बनी रहती थी/ काव्य सृजन करती थी, परन्तु डायरी तक ही सिमटा रहता था; किसी के साथ सांझा नहीं करती थी/ उसके बाद 'सरिता ' पत्रिका में 'मेरी वसीयत' 1991 में प्रकाशित हुई / पाठकों की प्रतिक्रिया से उत्साह जागा / तब से निरंतर 19 वर्षों तक आकाशवाणी , बीकानेर के महिला जगत से मेरा काव्य पाठ प्रसारित होता रहा/ लिखना ज़ारी रहा, परन्तु प्रथम काव्य संग्रह, सेवा निवृति के कुछ अरसे बाद 2015 में ' MORTGAGED 'शीर्षक से प्रकाशित हुआ/ अब कारवां बढ़ता ही जा रहा है/

3 . मेरा मौलिक काव्य सृजन हिंदी, अंग्रेज़ी  पंजाबी भाषा में है/ साथ ही साथ हिंदी, अंग्रेज़ी, राजस्थानी, पंजाबी व् उर्दू  में अनुवाद कार्य  निरंतर चल रहा है/ मुझे विभिन्न भाषाओँ की कविताओं का अंग्रेज़ी  व् हिंदी में अनुवाद करना बहुत  पसंद है/ अनुवाद के माध्यम से विभिन्न भाषाओँ के साहित्यकारों से  जुड़ने का अवसर मिलता है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान बनती है/

4. मुझे ऐसा महसूस होता है कि कविता के माध्यम से बहुत कम शब्दों में भावाभिव्यक्ति स्वतः हो जाती है/ दिल से निकली बात सीधे पाठकों के दिल को छूती है/ कहानी के लिए अधिक समय देना पड़ता है, लिखने में भी और पढ़ने में भी/

5  मेरे दो काव्य संग्रह ' होने से न होने तक' व् 'पिघलते हिमखंड ' हिंदी में प्रकाशित  हुए और दोनों का ही मैथिली व् पंजाबी में अनुवाद हो चुका है व् इन में से चुनिंदा कविताओं का गुजराती, मराठी, आसामी, डोगरी, संस्कृत , नेपाली व् बांग्ला भाषा में अनुवाद हो चुका है/ MORTGAGED , MAIDEN STEP मेरी इंग्लिश पोएट्री बुक्स हैं/ इसके अतिरिक्त Aspiration, Initiation , A Night in Sunlight,, Swayamprabha , Accursed हिंदी से ,  Reveries पंजाबी से , Fathoming Thy Heart , Vent Your Voice, Language Fused in  Blood, Purnmidam , The Sun on Paper राजस्थानी से इंग्लिश लक्ष्य भाषा में प्रकाशित/ एक हिंदी काव्य संग्रह व् राजस्थानी से इंग्लिश अनुवाद संग्रह प्रकाशनधीन/ अंक शास्त्र व् नामांक शास्त्र पर 6 पुस्तकें प्रकाशित/ 5 अंतरराष्ट्रीय काव्य संग्रहों में  भागीदारी / 26 इ -बुक्स किंडल पर प्रकाशित 

6 अपने आस पास जो घटित हो रहा है और अपने मन के कोमल भाव व् अंतर्द्वन्द ही मेरे रचनाओं की विषय वस्तु हैं/

7. मेरी रचनाओं के पात्र वास्तविक जीवन से जुड़े होते है/ सपनों की दुनिया में विचरते हुए भी, उनके पाँव यथार्थ के धरातल पर टिके के रहते हैं/ मेरा सबसे प्रिय पात्र वही है जो विषम परिस्थितियों में भी आस का दामन न छोड़े और मंज़िल पाने ले लिए भरपूर प्रयास करे/

8 . मेरी रचनाएँ कोमल भावनाओं की धरा से उपजती हैं/ सामाजिक परिवेश की विसंगतियां, तार तार होते सामाजिक ताने बाने को फिर से बुनने का प्रयास, आस विश्वास के रंग मेरी रचनाओं में मुखरित होते हैं/

9. सामाजिक परिवेश में जो घटित हो रहा है,उस से अछूती कैसे रह सकती हूँ/ रिश्तों की गरिमा को संजोने का प्रयास करती हूँ/ आहत मन का विलाप , पूर्णता की चाह , निज अस्तित्व की तलाश, साम्प्रदायिकता का डंक मेरी रचनाओं का आधार बनते है/

10 जैसे  माँ को अपने सभी बच्चे सम भाव से प्रिय होते है, वैसे ही मुझे अपनी सभी रचनाओं से लगाव है/ परन्तु , मुझे अपना हिंदी काव्य संग्रह' पिघलते हिमखंड' विशेष प्रिय है/ इसकी विषय वस्तु हमारा सामाजिक परिवेश है और पाठकों का व् साहित्य जगत का भरपूर स्नेह इसे मिला है क्योंकि पाठक अपने आपको इस से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं/

11 . आजकल लेखकों द्वारा इतना कुछ लिखे जाने के बावज़ूद ,पाठक उतना  अधिक प्रभावित नहीं हो पा रहा क्योंकि वो मानसिक व् भावनात्मक स्तर पर ख़ुद को उन से जोड़ नहीं पा रहा/

12 . डिजिटल युग में साहित्य के भविष्य की राह प्रशस्त है/ वृहद स्तर पर पाठकों को साहित्य उपलब्ध हो रहा है, चाहे वे दुनिया के किसी भी कोने में हों/ विश्व स्तर पर वैचारिक क्रांति का सशक्त माध्यम है डिजिटल साहित्य./ यह साहित्य का वैश्वीकरण है/ सब से बड़ी बात यह है कि आप अपनी पुस्तकें स्वंय प्रकाशित कर सकते हैं , किंडल डायरेक्ट पब्लिशिंग के निर्देशों की पालना करते हुए/ मेरी प्रथम पुस्तक किंडल पर 2015 में प्रकाशित हुई  और अब तक 26 पुस्तकें डिजिटल साहित्य के रूप में उपलब्ध  है/ देश विदेश से पाठकों का जुड़ाव व् उनकी प्रतिक्रिया जानना सुखद लगता है/ 

13. प्रवासी हिंदी साहित्य की समृद्धि हेतु, ऑनलाइन सेमिनार् व् काव्य प्रस्तुति सशक्त माध्यम है/ वृहद स्तर पर देश विदेश के पाठकों से जुड़ने का अवसर मिलता है/ प्रवासी हिंदी साहित्य अपनी जड़ों से जुड़े होने की अनुभूति देता है/

14  लेखन कार्य के अतिरिक्त मेरी रूचि समाज सेवा, पेंटिंग, फोटोग्राफी व् देशाटन में है/ सर्वोपरि अंकशास्त्र से 1989 से जुड़ी हूँ/ भविष्य को जानना व् समस्याओं का समाधान पाने का प्रयास , मेरी ज़िंदगी का लक्ष्य हैं/ 

15 नवांकुरों के उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए, उन्हें यह सन्देश देना चाहती हूँ कि केवल अपने मनोभावों को पाठकों तक पहुँचाने के लिए न  लिखें, अपितु कुछ ऐसा लिखें जो सब के लिए प्रेरणास्प्रद हो व् जन जीवन के साथ जुड़ा हो/ साथ ही साथ उत्तम स्तर का साहित्य भी पढ़ते रहें/

16 . हिंदी साहित्य के पाठकों की संख्या की वृद्धि के लिए , प्रचार प्रसार में वृद्धि करने की आवश्यकता है/ समय समय पर साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन किया जाना चाहिए/ लेखक के साथ पाठकों को संवाद का अवसर देना भी एक सुखद प्रयोग रहेगा/ प्रकाशित साहित्य की वृहद स्तर पर समीक्षाएं भी प्रकाशित होनी चाहिए/

रजनी छाबड़ा 

बहु भाषीय कवयित्री व् अनुवादिका

Monday, September 20, 2021

"एक खोयी हुई नारी "

 एक खोयी हुई नारी


खुद में खुद को तलाशती स्त्री की लाचारगी का नाम है 'एक खोयी हुई नारी'। यह "पिघलते हिमखण्ड" कविता संग्रह की एक विशिष्ट  कविता का शीर्षक है। पिघलते हिमखण्ड की अधिकांश कविताएँ स्त्री विमर्श के नये- नये वातायन खोलने में सक्षम हैं। कवयित्री, अनुवादिका,अंक ज्योतिषी होने  के साथ- साथ,अनेक भाषाओं को जानने और उन भाषाओं में कविता के माध्यम से भावाभिव्यक्ति करने वाली विदुषी का नाम है रजनी छाबड़ा। अंग्रेजी, हिन्दी, पंजाबी व् राजस्थानी, में इनकी मौलिक तथा अनुदित अनेकानेक रचनाएँ हैं। जहाँ तक मुझे जानकारी है इनके  'पिघलते हिमखण्ड' और 'होने से न होने तक' काव्य संग्रहों का पंजाबी और मैथिली व् इन्ही काव्य संग्रहों की चयनित  कविताओं का संस्कृत, नेपाली, गुजराती , मराठी , बांग्ला, आसामी , डोगरी आदि अनेकानेक भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हो चुका  हैं।

             हिन्दी की महिला रचनाकारों के नारी सशक्तीकरण और स्त्री विमर्श के विषय में पढ़ रहा था / 'आपकी बंटी' उपन्यास की उपन्यासकार ने लिखा है-मैंने जब अपने परिवार में बच्चों से पूछा कि तुम्हारी दादी माँ का नाम क्या है तो किसी ने उनका नाम नहीं बतलाया। वैसे ही नानी माँ के विषय में पूछा तो नहीं में उत्तर मिला।लोग हमेशा उन्हें दादीसा,नानीसा के नाम से ही पुकारते रहे।कारण है कि नारी यहाँ हमेशा से सम्बन्धों से जानी जाती हैं नाम से नहीं माँ,बहन,बेटी, बहू आदि ही उसकी पहचान होती है।

                   आज रजनी छाबड़ा की 'एक खोयी हुई नारी'  कविता को पढ़ते हुए मन्नू भंडारी की उक्ति याद आ गई।जब राह चलते बचपन की दोस्त नाम लेकर पुकारती है तो कवयित्री को एहसास होता है कि अरे मैं तो वह लड़की हूँ जिसका कोई नाम था, जिसे वह खुद भी भूल गयी थी। सिर्फ उसकी धुँधली परछाँई बन कर रह गई है।

            हर लड़की को एक उम्र के बाद गैरों द्वारा नहीं, अपनों  द्वारा ही उसके नाम की पहचान मिटा दी जाती है।अमूक की बेटी, अमूक की बहू, अमूक की पत्नी, अमूक की माँ बनते हुए रिश्तों के गुंजलक में फँसी औरत अपनी पहचान खो देती है।वह अपना नाम तक भूल जाती है।

              इस कविता की लड़की (नायिका) जिसका एक नाम था, गाँव-घर में उस नाम से पहचानी जाती थी। माता पिता की दुलारी थी।डाल-डाल उड़ने और चहकने वाली चिड़िया सी घर-आँगन से गाँव की गलियों में दूर-दूर तक उड़ने वाली चिड़िया थी। अचानक इस भोली भाली चिड़िया की आजादी उनके सगे सम्बन्धियों को खटकने लगी उनलोगों ने उस लड़की की आजादी खत्म करने के लिए खूबसूरत बहाने बनाकर छोटी उम्र में ही विवाह के बन्धन में बँधवा दी।

                   छोटी सी उड़ती चहकती चिड़िया औरत बना दी गई। लिखने-पढ़ने की हसरत सपने बनकर रह गए। पुरुष वर्चस्ववादी समाज द्वारा उसे सेवा का पाठ-पढ़ाया जाने लगा/ उसे बतलाया गया कि इस दुनिया में सेवा से बढ़कर कुछ नहीं है सास,ससुर,पति परमेश्वर के साथ साथ श्रेष्ठ जनों की सेवा से ही औरत को सबकुछ मिलता है /यहीं से वह अपनी पहचान खोने लगी।अब वह गृहस्थी के मायाजाल में फंसी खुद को भूलती चली गई। परिवार की  आवश्यकतानुसार दिन-रात खुद को खपाया /

               अब बच्चे अपनी जिंदगी में व्यस्त रहने लगे।पति की व्यस्तता के कारण उनसे भी दूरी बढ़ती गई। उम्र के इस पड़ाव पर आकर रिश्तों के रेगिस्तान में अपनी वजूद तलाशने लगी।आज रेगिस्तान की तपती रेत सी बन चुकी ज़िन्दगी में खुद को तलाशती औरत बियाबान में खड़ी है जहाँ उसकी पहचान खो गई है।

               कवयित्री चन्द पंक्तियों के माध्यम से एक लड़की से औरत में तबदील होकर रिश्तों के नाम से जीने वाली दुनिया की उन तमाम नारियों के लिए एक विमर्श उपस्थित करती हैं। आखिर औरत के साथ ही ऐसा क्यों होता है? उसे ही अपनी पहचान खोने के लिए क्यों बाध्य होना पड़ता है।

               आज भी औरतों को अपने हक़ के लिए,अपनी पहचान बनाने के लिए,जद्दोजहद करने को बाध्य होना पड़ता है। औरतों के हक़ में हालात कुछ बदले हैं किन्तु दादीसा और नानीसा की स्थिति में बदलाव आना अभी भी शेष है।

डॉ. शिव कुमार प्रसाद 

प्रोफेसर ( हिंदी) एच पी एस कॉलेज , निर्मली , सुपौल

कवि, अनुवादक व् समीक्षक

Sunday, September 19, 2021

एक खोयी हुई नारी

 


               एक खोयी हुई नारी 


शिक़वा नहीं गैरों से 
अपनों ने ही छीन ली 
मुझ से मेरी पहचान 
बेटी , बहू  पत्नी , माँ 
इन रिश्तों में खोया 
निज कहाँ 


कल राह चलते पुकारा जब 
बचपन की सखी ने लेकर मेरा नाम 
खुलने लगे बंद यादों के झरोखे 
धूप छनी किरणों से उभरा 
धुँधला धुँधला सा मेरा नाम 

मैं भी कभी मैं थी 
माँ -बाबुल के नन्ही चिड़िया 
उमंग उत्साह से भरपूर 
उड़ती रहती घर आँगन 
गाँव की गलियों में दूर दूर 

मेरी आज़ादी के किस्से हुए मशहूर 
किरक सी चुभने लगी 
हमसायों और रिश्तेदारों की आँखों में 
मेरी पँख -पसारे आज़ादी 
सलाह दी गयी, मेरे पर नोचने की 
खूबसूरत बहानों में उलझा कर 
करा दी कमसिन उम्र मैं 
मेरी शादी 

पढ़ाई लिखाई बन कर रह गयी ख्वाब 
समझाया गया 
घर की सेवा करने मैं ही मेरा सवाब 
जब तक रही निज पहचान की इच्छा सुप्त 
तब तक चंद बरस रही गृहस्थी में तृप्त 

बच्चे अपनी ज़िन्दगी  में व्यस्त 
पति को कामकाज़ से नहीं फ़ुर्सत 
सुलगती रेत सा मन मेरा 
हो रहा तप्त 
धधकते रेगिस्तान मैं
रीते घड़े सा रीता मन मेरा 
तलाश रहा , मृग मरीचिका में 
मेरी पहचान 

मैं अमुक की बेटी, अमुक की बहू
अमुक की पत्नी  और अमुक की  माँ 
 इन रिश्तों के च्रक्रव्यूह में , मैं कहाँ 
क्या शिक़वा करूँ गैरों से 
अपनों ने ही छीन ली 
मुझ से मेरी पहचान 

रजनी छाबड़ा









Thursday, September 9, 2021

उड़ान


 

 

 उड़ान 

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नन्हे , मासूम  पाँखियों को 

ख़ुद ही उड़ना सिखाते हैं 

उनके जन्मदाता 

 

उड़ना सीखने के बाद भी 

पिंजरे में ही सिमट कर रहें 

अपने पँख समेटे हुए 

क्यों फिर उन्हें, यह कहें

 

जो जितनी ऊँची उड़ान भर सकता है 

अपने ऊँचे मुकाम पर पहुंचेगा ही 

पर विश्वास रखिये 

उड़ान सिखाने वाले को 

भूलेगा नहीं/

@ रजनी छाबड़ा