Monday, September 20, 2021

"एक खोयी हुई नारी "

 एक खोयी हुई नारी


खुद में खुद को तलाशती स्त्री की लाचारगी का नाम है 'एक खोयी हुई नारी'। यह "पिघलते हिमखण्ड" कविता संग्रह की एक विशिष्ट  कविता का शीर्षक है। पिघलते हिमखण्ड की अधिकांश कविताएँ स्त्री विमर्श के नये- नये वातायन खोलने में सक्षम हैं। कवयित्री, अनुवादिका,अंक ज्योतिषी होने  के साथ- साथ,अनेक भाषाओं को जानने और उन भाषाओं में कविता के माध्यम से भावाभिव्यक्ति करने वाली विदुषी का नाम है रजनी छाबड़ा। अंग्रेजी, हिन्दी, पंजाबी व् राजस्थानी, में इनकी मौलिक तथा अनुदित अनेकानेक रचनाएँ हैं। जहाँ तक मुझे जानकारी है इनके  'पिघलते हिमखण्ड' और 'होने से न होने तक' काव्य संग्रहों का पंजाबी और मैथिली व् इन्ही काव्य संग्रहों की चयनित  कविताओं का संस्कृत, नेपाली, गुजराती , मराठी , बांग्ला, आसामी , डोगरी आदि अनेकानेक भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हो चुका  हैं।

             हिन्दी की महिला रचनाकारों के नारी सशक्तीकरण और स्त्री विमर्श के विषय में पढ़ रहा था / 'आपकी बंटी' उपन्यास की उपन्यासकार ने लिखा है-मैंने जब अपने परिवार में बच्चों से पूछा कि तुम्हारी दादी माँ का नाम क्या है तो किसी ने उनका नाम नहीं बतलाया। वैसे ही नानी माँ के विषय में पूछा तो नहीं में उत्तर मिला।लोग हमेशा उन्हें दादीसा,नानीसा के नाम से ही पुकारते रहे।कारण है कि नारी यहाँ हमेशा से सम्बन्धों से जानी जाती हैं नाम से नहीं माँ,बहन,बेटी, बहू आदि ही उसकी पहचान होती है।

                   आज रजनी छाबड़ा की 'एक खोयी हुई नारी'  कविता को पढ़ते हुए मन्नू भंडारी की उक्ति याद आ गई।जब राह चलते बचपन की दोस्त नाम लेकर पुकारती है तो कवयित्री को एहसास होता है कि अरे मैं तो वह लड़की हूँ जिसका कोई नाम था, जिसे वह खुद भी भूल गयी थी। सिर्फ उसकी धुँधली परछाँई बन कर रह गई है।

            हर लड़की को एक उम्र के बाद गैरों द्वारा नहीं, अपनों  द्वारा ही उसके नाम की पहचान मिटा दी जाती है।अमूक की बेटी, अमूक की बहू, अमूक की पत्नी, अमूक की माँ बनते हुए रिश्तों के गुंजलक में फँसी औरत अपनी पहचान खो देती है।वह अपना नाम तक भूल जाती है।

              इस कविता की लड़की (नायिका) जिसका एक नाम था, गाँव-घर में उस नाम से पहचानी जाती थी। माता पिता की दुलारी थी।डाल-डाल उड़ने और चहकने वाली चिड़िया सी घर-आँगन से गाँव की गलियों में दूर-दूर तक उड़ने वाली चिड़िया थी। अचानक इस भोली भाली चिड़िया की आजादी उनके सगे सम्बन्धियों को खटकने लगी उनलोगों ने उस लड़की की आजादी खत्म करने के लिए खूबसूरत बहाने बनाकर छोटी उम्र में ही विवाह के बन्धन में बँधवा दी।

                   छोटी सी उड़ती चहकती चिड़िया औरत बना दी गई। लिखने-पढ़ने की हसरत सपने बनकर रह गए। पुरुष वर्चस्ववादी समाज द्वारा उसे सेवा का पाठ-पढ़ाया जाने लगा/ उसे बतलाया गया कि इस दुनिया में सेवा से बढ़कर कुछ नहीं है सास,ससुर,पति परमेश्वर के साथ साथ श्रेष्ठ जनों की सेवा से ही औरत को सबकुछ मिलता है /यहीं से वह अपनी पहचान खोने लगी।अब वह गृहस्थी के मायाजाल में फंसी खुद को भूलती चली गई। परिवार की  आवश्यकतानुसार दिन-रात खुद को खपाया /

               अब बच्चे अपनी जिंदगी में व्यस्त रहने लगे।पति की व्यस्तता के कारण उनसे भी दूरी बढ़ती गई। उम्र के इस पड़ाव पर आकर रिश्तों के रेगिस्तान में अपनी वजूद तलाशने लगी।आज रेगिस्तान की तपती रेत सी बन चुकी ज़िन्दगी में खुद को तलाशती औरत बियाबान में खड़ी है जहाँ उसकी पहचान खो गई है।

               कवयित्री चन्द पंक्तियों के माध्यम से एक लड़की से औरत में तबदील होकर रिश्तों के नाम से जीने वाली दुनिया की उन तमाम नारियों के लिए एक विमर्श उपस्थित करती हैं। आखिर औरत के साथ ही ऐसा क्यों होता है? उसे ही अपनी पहचान खोने के लिए क्यों बाध्य होना पड़ता है।

               आज भी औरतों को अपने हक़ के लिए,अपनी पहचान बनाने के लिए,जद्दोजहद करने को बाध्य होना पड़ता है। औरतों के हक़ में हालात कुछ बदले हैं किन्तु दादीसा और नानीसा की स्थिति में बदलाव आना अभी भी शेष है।

डॉ. शिव कुमार प्रसाद 

प्रोफेसर ( हिंदी) एच पी एस कॉलेज , निर्मली , सुपौल

कवि, अनुवादक व् समीक्षक