Monday, September 27, 2021

'ज्ञान की डगर'

                  'ज्ञान की डगर'

 माँ  की ममता संसार में सर्वोपरि है। किन्तु आदिम युग से आज तक वह पुरुषों के अनुपात में शैक्षिक दृष्टि से हाशिये पर रही हैं। वह संतान को अपने दूध से पालती, उसके विकास हेतु सदा से खुदी को भुलाकर सदैव परिवार हेतु सब कुछ न्यौछावर करती रही है।आधुनिक युग में समाज और सरकार के प्रयास से वे कुछ आगे बढ़ रही हैं।

             कवयित्री, अनुवादिका, अंकज्योतिष की मर्मज्ञ तथा अंग्रेजी, हिन्दी, पंजाबी ,राजस्थानी भाषा की विदुषी रजनी छाबड़ा "पिघलते हिमखण्ड" कविता संग्रह में नारी की भावनाओं को विविध शीर्षकों के माध्यम से रेखांकित करने में सफल हुई हैं/ इस कविता संग्रह का मैंने मैथिली में पघलैत हिमखंड नाम सेअनुवाद किया है।

                    'ज्ञान की डगर' इस काव्य संग्रह की वह रचना है जिसमें माताएँ अपनी बेटियों को पढ़ते देखकर खुद अभिप्रेरित होकर पेंसिल पकड़ लेती है।

                 कवयित्री रजनी छाबड़ा इस कविता में युग -युग से घरों में कैद बेटियों और उनकी माँओं को अक्षर के माध्यम से नयी दुनिया की ओर अग्रसर करती दिखाई देती हैं।इस कविता की गवरा,धापू, लिछमी और रामी वे पात्र हैं जो ज्ञान की डगर पर कदम जमाये तेज कदमों से शाला की ओर बढ़ती जा रही है/ यह तीव्र गति सिर्फ शाला तक पहुँचने भर की नहीं है वरन् बहन जी से गणित सीखने के  उतावले पन के कारण है।आज बहन जी उन्हें जोड़ और बाकी का सवाल बताने वाली हैं।जब  वे जोड़ बाकी सीख लेंगी तो भविष्य में दुकानदार हिसाब में होशियारी नहीं कर पाएगा।

                    अक्षर ज्ञान ऐसा ज्ञान है जिससे जीवन में लाभ ही लाभ है।दुकानदार हो या साहुकार, अक्षर ज्ञानियों को ठगने में सफल नहीं हो पाएगा।

                 गवरा, धापू, लिछमी और रामी आज गाँव की महिलाओं की प्रेरणास्रोत बन चुकी है।अब गाँव की महिलाएँ भी इन बच्चियों की तरह पढ़ना चाहती है।वे मन की बात बतलाते हुए कहती हैं कि मैं भी अनपढ़ क्यों रहूँ?

                 जब जागो तभी सवेरा। गाँव की लुगाइयाँ भी अब जग चुकी हैं। चूल्हा सुलगाती , दाल-भात राँधती , औरतों के अन्दर भी ज्ञान की चिंगारी चमकने लगी है। धधकती आग निहारती खुद भी सुलगने लगी हैं। फिर अब रुकेंगी कैसे? चूल्हे में  रखे कच्चे- कोयले सरका कर  दीवार पर ही क ख ग लिखती चली जाती है।

                  कवयित्री रजनी छाबड़ा इस कविता में औरतों के भीतर ज्ञान की आग जलाने में कामयाब होती दिखाई देती हैं यही कारण है कि आज लुगाइयाँ भी समझ रही हैं कि गुरु कोई भी व्यक्ति बन सकते हैं बस उनके पास ज्ञान होना चाहिए।

                 'धापली' शिक्षा केन्द्र पर जाने में असमर्थ है।वह अपनी बेटी को ही गुरु बनाकर ज्ञान की  राह पर चल चुकी है।

               राख में दबी चिंगारी (अक्षर ज्ञान पाने की लालसा)आज शिक्षा का महायज्ञ बन चतुर्दिक अपने यज्ञधूम से सुवासित सौरभ फैला रही  है/ गाँव की लुगाइयाँ इस यज्ञ में समिधा देती , शिक्षा पाकर खुशहाली की ओर बढ़ती जा रही है।

                  काश, कवयित्री छाबड़ा जी की नारी शिक्षा के प्रति 'ज्ञान की डगर' कविता में व्यक्त भावनाओं को यथार्थ के धरातल पर देखने का सौभाग्य प्राप्त हो।  "हम होंगे कामयाब" के मूल मंत्र के क्रियान्वयन का समय आ गया है/


डॉ शिव कुमार प्रसाद

हिन्दी विभाग,

एच पी एस काॅलेज, निर्मली, सुपौल।