एक खोयी हुई नारी
शिक़वा नहीं गैरों से
अपनों ने ही छीन ली
मुझ से मेरी पहचान
बेटी , बहू पत्नी , माँ
इन रिश्तों में खोया
निज कहाँ
कल राह चलते पुकारा जब
बचपन की सखी ने लेकर मेरा नाम
खुलने लगे बंद यादों के झरोखे
धूप छनी किरणों से उभरा
धुँधला धुँधला सा मेरा नाम
मैं भी कभी मैं थी
माँ -बाबुल के नन्ही चिड़िया
उमंग उत्साह से भरपूर
उड़ती रहती घर आँगन
गाँव की गलियों में दूर दूर
मेरी आज़ादी के किस्से हुए मशहूर
किरक सी चुभने लगी
हमसायों और रिश्तेदारों की आँखों में
मेरी पँख -पसारे आज़ादी
सलाह दी गयी, मेरे पर नोचने की
खूबसूरत बहानों में उलझा कर
करा दी कमसिन उम्र मैं
मेरी शादी
पढ़ाई लिखाई बन कर रह गयी ख्वाब
समझाया गया
घर की सेवा करने मैं ही मेरा सवाब
जब तक रही निज पहचान की इच्छा सुप्त
तब तक चंद बरस रही गृहस्थी में तृप्त
बच्चे अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त
पति को कामकाज़ से नहीं फ़ुर्सत
सुलगती रेत सा मन मेरा
हो रहा तप्त
धधकते रेगिस्तान मैं
रीते घड़े सा रीता मन मेरा
तलाश रहा , मृग मरीचिका में
मेरी पहचान
मैं अमुक की बेटी, अमुक की बहू
अमुक की पत्नी और अमुक की माँ
इन रिश्तों के च्रक्रव्यूह में , मैं कहाँ
क्या शिक़वा करूँ गैरों से
अपनों ने ही छीन ली
मुझ से मेरी पहचान
रजनी छाबड़ा