Wednesday, February 2, 2022

समीक्षा काव्य संग्रह : सांवर दइया की चयनित राजस्थानी कवितायेँ

 समीक्षा 

काव्य संग्रह : सांवर दइया की चयनित राजस्थानी कवितायेँ 

चयन-अनुवाद : नीरज दइया 

पेपरबैक: मूल्य रु. 200 /- मात्र 

प्रकाशक : इंडिया नेटबुक्स , नोएडा 

सांवर दइया आधनिक राजस्थानी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर / सशक्त कथाकार, कवि  व् व्यंग लेखक के रूप में हिंदी व् राजस्थानी साहित्य जगत में उनकी विशिष्ट पहचान है/ राजस्थानी के साथ साथ हिंदी, अंग्रेज़ी और गुजराती भाषाओँ पर उनका अधिकार था/ उन्होंने जीवन के अंतिम वर्षों में साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत गुजराती निबन्ध संग्रह ' स्टेच्यू '{ अनिल जोशी ) का राजस्थानी अनुवाद भी किया जो साहित्य अकादेमी से वर्ष 2000 में प्रकाशित हुआ/ 1985  में उन्हें कहानी संग्रह पर साहित्य अकादमिक का मुख्य पुरस्कार मिला/ आधुनिक राजस्थानी कविता के इतिहास में सांवर दइया को प्रयोगशील कवि  के रूप में विशेष रूप से पहचाना गया है/

मात्र 44  वर्ष की आयु में असमायिक निधन/ नश्वर शरीर दुनिया में न रहने के बाद भी, उनका साम्रज्य कायम है साहित्य प्रेमियों के दिलों पर/  उनकी कई रचनाएँ , उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो पायी / उन रचनाओं को साहित्यिक धरा पर लाने का सराहनीय कार्य कर रहे  हैं उनके सुपुत्र डॉ नीरज दइया / डॉ.नीरज विगत तीस वर्षों से राजस्थानी और हिंदी साहित्य के क्षेत्र में निरंतर सृजन, अनुवाद और संपादन के माध्यम से साहित्यिक योगदान दे रहें हैं/ साहित्य अकादेमी के मुख्य पुरस्कार और बाल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित डॉ.दइया , राजस्थानी भाषा, साहित्य व् संस्कृति अकादेमी, बीकानेर के अनुवाद पुरस्कार सहित अनेक मान सम्मान व् पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं/ परन्तु , अब तक डॉ. नीरज ने अपने पिताश्री की राजस्थानी कविताओं का हिंदी अनुवाद नहीं  किया था/इसकी योजना अनायास ही बनी ,जब मैंने  सांवर दईया जी की राजस्थानी व् हिंदी से चयनित कविताओं के अंग्रेज़ी अनुवाद-संचयन की योजना बनाई/ 'इन द आर्ट गैलरी ऑफ़ माई  हार्ट ' मेरे द्वारा किया गया अंग्रेज़ी अनुवाद व् डॉ नीरज दइया द्वारा चयनित राजस्थानी कविताओं का हिंदी अनुवाद सांवर दइया जी की जयन्ती पर वर्ष 2021 में इंडिया नेटबुक्स ,नॉएडा द्वारा एक साथ प्रकाशित हुए/ 

सांवर दईया जी की कविताओं में राजस्थान की सुनहरी रेत की महक है/ यहाँ के परिवेश से उनका सांस्कृतिक जुड़ाव झलकता है/ 

कोख में बीज 

सड़क के नहीं 

मिट्टी के होता है

और वही थामती हैं पानी 


दुनियावी रंगों का बयान, इतनी गहनता की बात, सीधे सरल शब्दों में अभिव्यक्ति में मन को छू जाती है और पाठक को मनन करने के लिए उकसाती है/

ज़रूरत है, इतना सा जान लें 

यह दुनिया है बाज़ार 

और हवा के होते हैं रंग हज़ार 


मन की कोमल भावनाएं भी उतनी ही ख़ूबी से  शब्दों में पिरोयी गयी हैं 

एक बार तुम रो पड़ती हो 

मनाने पर मुस्कुराती 

आसूं पोंछती छिपती हो सीने में 

हाथों की एक तयशुदा मुद्रा  के साथ 

--अच्छी आदत है आपकी !

 इसी मुद्रा के पीछे पागल मैं 

अभी तक लटकाएं हूँ 

मन की आर्ट गैलरी में 

तुम्हारा यह मोहक चित्र !


परन्तु रोज़ी रोटी की जुगाड़ में उलझा इंसान , दीन दुनिया की खबर रखे भी तो  कैसे ?
तेल 
नमक 
और लकड़ी की 
जुगत जोड़ने के लिए 
घर और दफ्तर के मध्य 
पेंडुलम की तरह घूमता 
मैं 

अब तुम्हीं बताओ 
कब फुर्सत मिलें मुझे 
कि सोचूं 
आकाश का रंग कैसा है 
हवा का रुख क्या है 
ऋतुएं बदल रही हैं 
या---- ?

आम आदमी की मनोस्थिति और द्वन्द को इंगित करते हुए कवि कहता है 
जो बोलते है 
लोग उन्हें पागल कहते है 
और जो चुप रहते हैं उन्हें बेजुबान 

ज़िंदगी के दो रूप और शहर ; एक बिम्ब में भी आमजन की स्थिति का  गहन 
अवलोकन है/

निहित स्वार्थ  के लिए आमजन का शोषण , कवि के मन को आहत करता है /

वे  धरती पर आते हैं  
बंदरों को बाँटते हैं
धारदार उस्तरे 
बन्दर एक दूसरे के 

नाक -कान -गला 

काटने का तलाशते हैं मौका 

धरती  होती है रक्त -रंजित 

लेकिन उनके होठों पर खिलती है 

मुस्कुराहट 


कवि  निजता से ऊपर उठ , मांगता है ईश्वर से, तो भावी पीढ़ियों के लिए 

युगों से अन्धकार में गुम 

सुखों को खोज सकूं 

भावी पीढ़ियों के लिए 

वह आँख देना मुझे 

डॉ नीरज  ने राजस्थानी से हिंदी में अनुसृजन करते हुए, कविताओं के मूल भाव को सहेजे रखा है/ कविताओं के इस इंद्रधनुषी पुष्प -गुच्छ  को अपनी कल्पना और सोच के उत्कृष्ट रंगों से सजा कर पाठकों के समक्ष रखा है/ इस उत्कृष्ट कृति के माध्यम से वह अपने पिताश्री के प्रति ऋण से उऋण हुए प्रतीत होते हैं/

दुनिया के सृजनहार से प्रार्थना हैं कि डॉ. नीरज  दइया के साहित्य सृजन संसार को यूं ही निखारे रखे/ 

रजनी छाबड़ा 

बहु भाषीय कवयित्री व् अनुवादिका 

rajni.numerologist @ gmail .com 



समीक्षा ****** काव्य संग्रह : ख़ामोशी की चीखें




 समीक्षा

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  काव्य संग्रह : ख़ामोशी की चीखें 

कवि : डॉ संजीव कुमार 

प्रकाशक : इंडिया नेटबुक्स ,नोएडा 

पेपरबैक; मूल्य रु. 225 मात्र 

यह वादी धुंआ धुंआ क्यों हैं?  लहू ज़र्द हुआ क्यों है ?

जी हाँ, मैं  ज़िक्र कर रही हूँ कश्मीर की हसीन वादियों का/ उन शांत, सुरमई वादियों का जहाँ कभी सुकून का बोलबाला था/ सभी धर्म अनुयायिओं का सौहार्द पूर्ण सह-अस्तित्व था / जाने किस की नज़र लग गयी और देखते ही देखते ज़न्नत ज़ह्नुम में तब्दील होने लगी/ सियासतों के इस दौर में , अब तो खुल कर सांस लेना भी दुश्वार हो गया है/ कभी हंसती गुनगुनाती वादियों में अब तो सुनायी देती हैं बस खामोशी की चीखें /

अत्यंत भावुक, संवेदनशील , निर्भीक , मनचक्षु से दुनिया देखने वाले प्रतिष्ठित कवि डॉ. संजीव कुमार के सद्य प्रकाशित काव्य संग्रह 'ख़ामोशी की चीखें' पढ़ते हुए, अपने अतीत के  उन सुनहरे दिनों की याद मन में कौंध रही है जो मैने अपनी सनातक शिक्षा प्राप्ति के दौरान कश्मीर में बिताए / संन 1970  से 1973 का स्वर्णिम समय जो मैंने धरती के स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर की हसीन वादियों में बिताया,  वह तो अब ख़्वाबों की बात हो गया/ अब तो एकदम विपरीत, विरोधाभासी स्थितियाँ हैं/

डॉ. संजीव की लगभग सभी कृतियाँ मैंने अपनी लाइब्रेरी में संजों रखी हैं /विभिन्न आयामों पर रचित उनकी कृतियां अनूठी है , परन्तु 'खामोशी की चीखें ; कुछ अलग ही अंदाज़ में रची गयी है/ सरल ,सहज शब्दों में विचारों की गहनता समायी है/ कवि ने मनो कश्मीर की वादियों के ज़र्रे  ज़र्रें के दर्द को निजता से महसूस किया है/ उसकी चुभन से स्वयं को एकाकार किया है/

उनकी सशक्त लेखनी के माध्यम से , सियासती दौर की कुरूपता का वीभत्स चेहरा आँखों के आगे उभरने लगता है/

बेख़ौफ़ घूमते जुलूस 

मार काट 

बलात्कार ,लूटपाट 


भय से थरथराती 

धरती 

और धरती पर बसे हुए 

प्राणी, जीव, जंतु 


राजनैतिक लाभ के लिए , लोगों को पथ भ्रमित करते, हिंसा के लिए उकसाने वाले लोगों को , कवि ने आड़े हाथों लेते हुए लिखा है 

उम्मीद में घोलकर हिंसा 

जगाकर दिलों में जुनून 

इन्सान्यित का 

कर रहें हैं खून 

बैठकर ख़ुद आरामगाहों में 

भटका रहे हैं 

नौजवानों को 


स्याह अँधेरे की चादर ओढ़ी रातों में, दनदनाते आते आतंकवादी , किसी कभी दरवाज़ा खटखटा , खाने के इंतज़ाम का हुक्म देते है/ इंकार करने की हिम्मत कोई करे भी तो कैसे , क्योंकि वे बंदूकों से लैस आते हैं/ रात का खाना खाते है, आराम फ़रमाते हैं और बहु बेटियों की अस्मत भी लूटते है/ 

औरतों से करते हैं 

बदसलूकी 

लूट लेते हैं घर 

लूट लेते हैं अस्मत 

और बस उसके बाद  

रह जाती हैं देह 

बन कर एक लाश 

आत्मा हो जाती है 

टुकड़ा टुकड़ा 


दुर्भाग्य की पराकाष्ठा को झेल रही हैं, कश्मीर की अबलाएं , जो मानसिक आघात के बाद  ज़िंदा लाशों जैसी ज़िंदगी बिता रही है/ ये अबलाएं रक्त रंजित कश्मीरियत की प्रतीक हैं/ 

लुटा चुकी हूँ 

अपना सब कुछ 

अपना सुहाग 

अपना बेटा 

अपनी बेटी 

और अपना घर बार 

पर नहीं पता 

मौत क्यों न आई मुझे 


कश्मीर से कश्मीरी पंडितों का जबरन विस्थापन, अल्प संख़्यक कश्मीरियों का भय त्रस्त चेहरा , जो हर पल मौत के आते हुए क़दमों की आहट महसूस करता है, इस काव्य संग्रह की मार्मिक कविताओं को पढने के बाद, आँखों के आगे उभरने लगता है/ 

कवि के आहत मन की व्यथा, पाठक को भी व्यथित कर देती है/ भावनाओं के धरातल पर पाठक भी रचियता के साथ ही खड़ा प्रतीत होता है/ यही इस काव्य संग्रह की उत्कृष्टता का प्रमाण है/ 

मज़हबी अंगारों में 

जल गयी गुलनार 

ख्वार ही ख्वार 


काव्य संग्रह का मुख्य  बिंदु ,कश्मीर से हिन्दुओं के पलायन से सम्बंधित है और अपनी जड़ों से उखड़ने 

के दर्द को कवि ने बहुत मार्मिकता के साथ अभिव्यक्त किया है/

इतना सब कुछ घटित हो जाने के बाद भी, कश्मीर के लोग आशावान हैं/ आस का दीप अभी भी निराशा के अँधेरे को हटाने को आतुर है/

उन्हें इंतज़ार है 

कि शायद 

वह दिन भी तो आएगा 

जब एक बार फिर 

जाएंगे 

अपनी धरती चूमने 

और बनाने 

अपनी धरती 

पर  अपना 

वही घर 

खामोशी की चीखें '  काव्य संग्रह कश्मीर की त्रासदी से साक्षात्कार कराता है/ क़ाश ! कश्मीर पहले जैसा धरती का स्वर्ग बन जाये और कश्मीर के लोगों को बेबसी, पीड़ा और बेचारगी से निज़ात मिले/ 

कवि की लेखनी की गहनता, संजीदगी की जितनी प्रशंसा की जाये, कम है/ इस अनुपम काव्य संग्रह की आशातीत लोकप्रियता के लिए डॉ. संजीव कुमार को मेरी शुभकामनायें /

रजनी छाबड़ा 

बहु भाषीय कवयित्री व् अनुवादिका 

गुरुग्राम 

rajni.numerologist @gmail.com