Wednesday, October 7, 2009

दावत

आज दावत है तुम्हे
मेरे दर्द मैं
शामिल होने की
मेरा दर्द-ऐ-दिल
समझने की
मेरे दर्द मैं ,रोने की
दम घुटता है
तनहा रोते रोते
तमन्ना नहीं
फिर बहार आए
तुम,हाँ,तुम
गेर दो अश्क ही
पोंछ दो
दिल-ऐ बेकरार को
करार आए

चाहत

गेर चाहत
एक गुनाह है
तो क्यों
झुकता है
आसमान
धेरती पर
और क्यों
घुमती है धेरती
सूरज के गिर्द