Monday, May 31, 2010

Baal Shramik

बाल श्रमिक
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वह जा रहा है बाल श्रमिक
अधनंगे बदन पर लू के थपेड़े सहते
तपती,सुलगती दुपहरी में ,सर पर उठाये
ईंटों से भरी तगारी
सिर्फ तगारी का बोझ नहीं
मृत आकांक्षाओं की अर्थी
सर पर उठाये
नन्हे श्रमिक के बोझिल कदम डगमगाए
तन मन की व्यथा किसे सुनाये
याद आ रहा है उसे
मां जब मजदूरी पर जाती और रखती
अपने सर पर ईंटों से भरी तगारी
साथ ही रख देती दो ईंटें उसके सर पर भी
जिन हालात मैं खुद जे रही थी
ढाल दिया उसी मैं बालक को भी
माँ के पथ का बालक
नित करता अनुकरण
लीक पर चलते चलते,
खो गया कहीं मासूम बचपन
शिक्षा  की डगर पे चलने का अवसर
मिला ही नहीं कभी
उसे तो विरासत मैं मिली
अशिक्षा की यही कटीली राह

काश! वह रोज़ी रोटी की फिक्र के
दायरे से निकल पाए
थोडा वक़्त खुद के लिए बचाए
जिसमे पढ लिख कर
संवार ले वह  बाकी की उम्र
बचपन के मरने का जी दुःख उसने झेला
आने वाले वक़्त में,वह कहानी
उसकी संतान न दोहराए
पढने  की उम्र में ,श्रमिक न बने
कंधे पर बस्ता उठाये
शान से पाठशाला जाए


Friday, May 28, 2010

ज़रा सोच लो

ज़रा सोच लो
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दूसरों को ठोकरें मारने वालो
ज़रा सोच लो एक पल को
पराये दर्द का एहसास
तुम्हे भी सालेगा तब
ज़ख़्मी हो जायेंगे
तुम्हारे ही पाँव जब
दूसरों को ठोकरें मारते मारते




रजनी छाबड़ा 

Saturday, May 15, 2010

mn ki patang

मन की पतंग


पतंग सा शोख मन
लिए चंचलता अपार
छूना चाहता है
पूरे नभ का विस्तार
पर्वत, सागर, अट्टालिकाएं
अनदेखी कर
सब बाधाएं
पग आगे ही आगे बढाएं

ज़िंदगी की थकान को
दूर करने के चाहिए
मन की पतंग
और सपनो का आस्मां
जिसमे मन भर  सके
बेहिचक, सतरंगी उड़ान

पर क्यों थमाएं डोर
पराये हाथों में 
हर पल खौफ
रहे मन में 
जाने कब कट जाएँ
कब लुट जाएँ

चंचलता, चपलता
लिए देखे मन
ज़िन्दगी के आईने
पर सच के धरातल
पर टिके कदम ही
देते ज़िंदगी को मायने


रजनी छाबड़ा