Wednesday, May 27, 2015

बेआब

बेआब

ग़र रोने  से ही
बदल सकती तक़दीर
यह ज़मीन बस
सैलाब होती

गर अश्क़ बहाने से ही
होती हर ग़म की तदबीर
यह नम आँखें
कभी बेआब न होती