Tuesday, September 22, 2009

तुम्हारे लिए

बहारों के सब रंग
सिमट आयें तेरे दामन मैं
फूलों की महक सी
महकती रहो तुम
तुम चेह्को
नन्हे पाखी सी
खुशियाँ महके
सब और तेरी
छाया भी न कभी दुःख की
पड़े तुम पर
इतनी सी दुआ है मेरी

मन के बाज़ार मैं

टूट कर जुड भी जाएँ
तो दरार दिखती है
मन के बाज़ार मैं
फिर नही
वो शै
बिकती है

Friday, September 18, 2009

BAAT SIRF ITNEE SEE


क्या तुम सुन रही हो,माँ
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==
माँ, तुम अक्सर कहा करती थी
बबली, इतनी खामोश क्यों हो
कुछ तो बोला करो
मन के दरवाज़े पर दस्तक दो
शब्दों की आहट से खोला करो

अब मुखर हुई हूँ
तुम ही नहीं सुनने के लिए
विचारों का जो कारवां
तुम मेरे ज़हन में छोड़ गयी
वादा  है तुमसे
यूं ही बढ़ते रहने दूंगी

सारी कायनात में 
तुम्हारी झलक देख
सरल शब्दों की अभिव्यक्ति को
निर्मल सरिता सा
यूं ही बहने दूंगी

मेरा मौन अब स्वरित
हो गया है, माँ
क्या तुम सुन रही हो?





2. बात सिर्फ इतनी सी 
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बगिया की
शुष्क घास पर
तनहा बैठी वह
और सामने
आँखों में तैरते
फूलों से नाज़ुक
किल्कारते बच्चे

बगिया का वीरान कोना
अजनबी का
वहाँ से गुजरना
आंखों का चार होना

संस्कारों की जकड़न 
पहराबंद
उनमुक्त धड़कन
अचकचाए
शब्द
झुकी पलकें
जुबान खामोश
रह गया कुछ
अनसुना,अनकहा

लम्हा वो बीत गया
जीवन यूँ ही रीत गया

जान के भी
अनजान बन
कुछ
बिछुडे ऐसा
न मिल पाये
कभी फिर
जंगल की
दो शाखों सा

आहत मन की बात
सिर्फ इतनी
तुमने पहले क्यों
न कहा

वह  आदिकाल
से अकेली
वो अनंत काल
से उदास
और सामने
फूलों से नाज़ुक बच्चे
खेलते रहे/


















वसीयत

सहेज कर रखूँगी
मोतियों की तरह
जो आसूँओं की वसीयत
तुम मेरे नाम कर गए
मुस्कुरा कर सहूँगी
वक्त का हर वो सितम
जो न चाह कर भी
तुम मेरे नाम
कर गए

रोशन रखूंगी
ज़िंदगी की
अंधेरी रातों को
तेरे यादों के
चिराग से
यही यादों की
वसीयत,तुम मेरे
नाम कर गए

फिजायें मेरे देर से
अजनबी सी
गुजर जाती हैं
लाख बदलें
ज़माने के मौसम
अब तो बस
यही खिजा
का मौसम
तुम मेरे नाम कर गए


पथिक बादल

एक पथिक बादल
जो ठहरा था
पल भेर को
मेरे आँगन
अपने स्नेह की
शीतल छाया ले कर
वक्त की बेरहम
आंधियां
जाने
ज़िंदगी के
किस मोड़ पे
छोड़ आयी
रह रह कर मन में
एक कसक
सी उभेरआए
काश! एक
मुठी आसमान
मेरा भी होता
कैद कर लेती उस में
पथिक बादल को
मेरे धुप
से
सुलगते आँगन में
संदली हवाओं का
बसेरा होता






















हसरत

यह हसरत ही रही
ज़िन्दगी की राहों मैं
साथ तेरा होता
पार कर जाते
हँसते हुए
सहरा दर सहरा
गर हाथों मैं
हाथ तेरा होता

मिली रहती गर
तेरे चश्म-ऐ करम
की छाओं
मेरे धुप से सुलगते
आँगन मैं
खुशनुमा हवाओं का
बसेरा होता

मुझे मिली हैं नसीब मैं
जो स्याह दर स्याह रातें
गर तुम साथ होते
स्याह रातों के बाद
उजला सवेरा होता

ज़िंदगी है मेरी
तेरी अधूरी किताब
होता गेर
तेरे मेरे बस मैं
मुकमल यह अफसाना
मेरा होता

















-

सुकून

सुकून मैं कहाँ
वो मज़ा
जो दे बेताबी
जूनून देता बेताबी
हर पल पाने को
कामयाबी
सुकून है मंजिल
रास्ता बेताबी

रजनी छाबड़ा

Thursday, September 17, 2009

एहसास

ऐ हवाओं
ऐ फिजाओं
मुझे मेरे होने का
एहसास दिलाओ

साँस ले रही हूँ मैं
अपने जिंदा होने का
यकीन नही
क्या ज़िन्दगी के खिलाफ
यह जुर्म
संगीन नही

एक पल मैं जी लेना
सौ जनम
हर धडकन मैं
संगीत की धुन

हर स्पंदन मैं
पायल की रुनझुन
रेशमी आँचल का
हौले से सरसराना
निगाहों से निगाहों मैं
सब कहना
बिन
पंखों
के
आकाश
नापना
पूर्णता का एहसास
सब खवाबों की
बात हो गया
रीते लम्हे
रीता जीवन
जीवन तो बस
बनवास हो गया

सौंधी
यादों
के उपवन
फिर
महकाओ
ऐ हवाओं
ऐ फिजाओं 

मुझे मेरे होने का
अहसास
दिलाओ



































मन की पतंग

पतंग सा शोख मन
लिए चंचलता अपार
छूना चाहता है
पूरे नभ का विस्तार
पर्वत,सागर,अट्टालिकाएं
अनदेखी कर
सब बाधाएं
पग आगे ही आगे बढाएं

ज़िंदगी की थकान को
दूर करने के चाहिए
मन की पतंग
और सपनो का आस्मां
जिसमे मन भेर सके
बेहिचक,सतरंगी उड़ान

पर क्यों थमाएं डोर
पराये हाथों मैं
हर पल खौफ
रहे मन मैं
जाने कब कट जाएँ
कब लुट जाएँ

चंचलता,चपलता
लिए देखे मन
ज़िन्दगी के आईने
पर सच के धरातल
पर टिके कदम ही
देते ज़िंदगी को मायेने

आख़िरी छोर तक

निगाहों के
आख़िरी छोर तक
बैचैन निगाहें
ढूँढती हैं तुम्हे
और तुम
कही नहीं नज़र
आतए आस पास
तब और भी
गहरा जाता है
मेले मैं अकेले
भीढ़ मैं
तनहा होने
का एहसास

Wednesday, September 16, 2009

उल्फत

नींद को पंख लगे कभी
कभी पंखों को नींद आ गयी
बेताबी मैं सुकून कभी
कभी सुकून पे
बेताबी छा गयी
सुर्ख उनीदी आँखों से
तारे गिनने की रस्म
यही उल्फत अब
हमें रास आ गयी

Tuesday, September 15, 2009

कांच से ख्वाब

टूटे हुए कांच से
ख़्वाबों की
चुभन की कसम
हम टूटे भी
तो इस अंदाज़ से
चूर चूर हो गए, पर
कांच टूटने की
खनक न हुई
तेरे विसालगम मैं
उमर

गुजार दी हमने
एक तू है
जिसे
टूटने की
भनक भी

न हुई

बेखुदी

बेखुदी के आलम मैं
ख़ुद को यूँ
पुकारती हूँ,
जैसे तुम
पुकारते हो मुझे
जाने कब
उतरेगा
यह जूनून मेरा
कब आयेगा
होश मुझे

Saturday, September 12, 2009

सच्चा मोती

जीवन के अथाह
सागर में
गिरती हैं बूंदे अनेक
और छा जाती है
एक हलचल
इस हलचल मैं
मन की
खुली सीप मैं
गिरती हैं
सिर्फ़ एक बूँद ऐसी
जो संजोयी जाती है
तमाम उमर
प्यार के
सच्चे मोती सी

माँ

ज़िन्दगी और
मौत के बीच
zindagi से lachaar
से पड़ी थी तुम
मन ही मन तब चाहा था मैंने
की आज तक तुम मेरी माँ थी
आज मेरी बेटी बन जाओ
अपने आँचल की छाओं मैं
लेकर करूं तुम्हारा दुलार
अनगिनत
mannaten
खुदा से कर
मांगी थी तुम्हारी जान की खैर

बरसों तुमने मुझे
पाला पोसा और संवारा
सुख सुविधा ने
जब कभी भी किया
मुझ से किनारा
रातों के नींद
दिन का चैन
सभी कुछ मुझ पे वारा
मेरी आँखों मैं गेर कभी
दो आँसू भी उभरे
अपने स्नेहिल आँचल मैं
sokhलिए तुमने
एक अंकुर थी मैं
स्नेह, ममता
से सींच कर मुझे
छाया भेरा तरु
banayaa
ज़िंदगी
भेर मेरा मनोबल
बढाया
हर विषम परिस्थिति मैं
मुझ को समझाया
वो बेल कभी न होना तुम
जो परवान चढ़े
दूसरों के सहारे
अपना सहारा ख़ुद बनना
है तुम्हे,ताकि परवान चढा
सको उन्हें जो हैं तुम्हारे सहारे

पैर तुम्हे सहारा देने की तमन्ना
दिल मैं ही रह गयी
तुम ,हाँ, तुम जिसने सारा जीवन
सार्थकता से बिताया था
कभी किसी
के आगे
सेर न झुकाया था
जिस शान से जी थी
उसी शान से दुनिया छोड़ चली
हाँ, मैं ही भूल गयीथी
उन्हें बैसाखियों के सहारे चलना
कभी नही होता गवारा
जो हर हाल मैं
देते रहे हो सहारा





Thursday, September 10, 2009

प्रेहेरी

आँख भेर आयी
निगाह
गहरी
और गहरी हुई
एक सागर
प्यार का
उमड़ आया
अंतस के
अछोर क्षितिज

तभी जगा
मन मैं
यह भय
तिरोहित न
हो जाए
खुली आँख का
स्वपन
और बस
झुक गई पलकें

किस खजाने की
भला
यह प्रेहेरी हुई

पूर्णता की चाह मैं

या खुदा!
थोड़ा सा अधूरा रहने दे
मेरी ज़िन्दगी का प्याला
ताकि प्रयास जारी रहे
उसे पूरा भरने का

जब प्याला
भर जाता है लबालब
भय रहता है
उसके छलकने का
बिखरने का
जब प्याला
रहता है अधूरा
प्रयास रहता, उसमे
कुछ और कतरे
समेटने का

जो जूनून
पूर्णता
पाने के प्रयास मैं है
वो पूर्णता मैं कहाँ

लबालब प्याले मैं
और भेरने की
गुन्जायिश नही
रहती ज़िन्दगी से
और कोई
ख्वाहिश नहीं

पूर्णता बना देती
संतुष्ट और बेखबर
पूर्णता की
चाह करती
प्रयास को मुखेर

मुझे थोड़े से
अधूरेपन मैं ही जीने दे
घूँट घूँट ज़िन्दगी पीने दे
सतत प्रयासशील
ज़िन्दगी जीने दे



Tuesday, September 8, 2009

सांझ के अंधेरे मैं

सांझ
के झुटपुट
अंधेरे मैं
दुआ के लिए
उठा कर हाथ
क्या
मांगना
टूटते
हुए तारे से
जो अपना
ही
अस्तित्व
नहीं रख सकता
कायम
माँगना ही है तो मांगो
डूबते
हुए सूरज से
जो अस्त हो कर भी
नही होता पस्त
अस्त होता है वो,
एक नए सूर्योदय के लिए
अपनी स्वर्णिम किरणों से
रोशन करने को
सारा ज़हान

Saturday, September 5, 2009

ज्योति

है जिनके जीवन का
हर दिन रात जैसा
और हर रात
अमावस सी काली
क्या तुम उनकी बनोगे दीवाली
वो महसूस कर सकते हैं
मंद मंद चलती बयार
पर नही जानते
क्या होती है बहार
नही जानते वो
बहारों के रंग
कैसे करती तितलियाँ
अठखेलियाँ
फूलों के संग
क्या होते हैं इन्द्रधुनुष के रंग
अपनी
आंखों से दुनिया देखने की उमंग
बाद अपने क्या तुम दोगे
उन्हें हसीं सपने
देख सकेंगे वो
दुनिया तुम्हारी आंखों से
न रहेगी उनकी दुनिया काली
उजाला ही
उजाला
हेर दिन खुशहाली
हेर रात उनकी
दीवाली















Friday, September 4, 2009

तेरे बगैर

तेरे बगैर
ऐसे जिए
जा रही हूँ मैं
जैसे कोई
गुनाह
किए जा रही हूँ
मैं

Thursday, September 3, 2009

मेरी
ज़िन्दगी के आकाश पे
इन्द्रधनुष सा
उभरे तुम
नील गगन सा विस्तृत
तुम्हारा प्रेम
तन मन को पुलकित
हेरा भेरा कर देता
खरे सोने सा सच्चा
तुम्हारा प्रेम
जीवन मैं
आस विश्वास के
रंग देता
तुम्हारे
स्नेह की
पीली ,सुनहली
धुप मैं
नारंगी सपनों का
ताना बाना बुनते
संग तुम्हारे पाया
जीवन मैं
प्रेम की लालिमा
सा विस्तार

सपनो से
सजा
संवरा
अपना संसार
बाद
तुम्हारे
इन्द्रेध्नुष के और
रंग खो गए
बस, बैंजनी विषाद
की छाया
दूनी है
बिन तेरे ,मेरी ज़िन्दगी
सूनी सूनी
है

सहमी सहमी

मौत
जब बहुत करीब से
आ कर गुज़र
जाती है
दहशत का
लहराता हुआ
साया छोड़ जाती है
सहमी सहमी सी
रहती हैं
दिल की धड़कने
ज़िन्दगी की बस्ती को
बियाबान सा
छोड़ जाती है.

खामोश

जुबां
मैं भी रखती हूँ
मगर खामोश हूँ
क्या दूँ
दुनिया के
सवालों के
जवाब
ज़िन्दगी जब ख़ुद
एक सवाल
बन कर रह गई


यादों के साये मैं

बेकरारी के मौसम मैं
तनहा करार कहाँ पायें
चलें तेरी यादों के साए
सुकून की बयार पायें

गिरवी

करबद्ध
सर
झुकाए
सिकुचा ,सिमटा सा
खड़ा था वेह
झरोखे से
विकीर्णित
होती
किरणों के पास
अपनी कलाकृति के आगे

कैनवास दर्शा रह था
क्षितिज छूने की आस मैं
उनमुक्त उड़ान
भरते विहग
और सामने पर कटे
पाखी सा
घायल
एहसास लिए
वेह कलाकार
गिरवी
रेख चुका था
अपनी अनुभूतियाँ
कल्पनाएँ
,संम्वेद्नाएं
अपनी कला के
सरंक्षक को



Tuesday, September 1, 2009

पक्षपात

दोष लगेगा
उस पर
पक्षपात का
गेर
ज़रा सा भी दुःख
वो न देगा मुझे

मैं भी तो
एक जर्रा
उसकी कायनात का
उसके कारवां की
एक मुसाफिर
सुख दुःख की
छाओं मैं
चलते हैं जहाँ
सभी
अछूती रही गेर
दुनिया के
चलन से
तो क्या
बदनाम
न होगा
मेरा नसीब
लिखने वाला