Wednesday, December 30, 2009

यूं आना

यूं आना


स्वर्णिम किरणों के रथ पे सवार


नव वर्ष!तुम धरा के आँगन में


कुछ इस तरह से आना


संग अपने लाना


सौंधी माटी की महक


उन्मुक्त पाखी की चहक


संदली बयार


प्यार की फुहार


सावन के गीत सा


मितवा के मीत सा


नेह अमृत बरसाना


तुम कुमकुम सने पगों से आना



धरा को धानी चुनरिया ओड़ाना

खुशियों के फूल अंगना मह्के


नव वर्ष में सब के मन चहकें


रजनी छाबड़ा 



Monday, November 30, 2009

SAAJAN KI DEHRI PER

साजन की देहरी पर
==============
कईं सावन,कईं बसंत,गए गुजर
तय करने में,बचपन से
यौवन तक की डगर
कली से पल्वित,कुसुमित  होंने का सफ़र

हाथों में सुहाग की मेहंदी रचाए
माथे पर सिंदूरी बिंदिया सजाये
धानी चुनरिया ओढ़
बाबुल की गलियाँ,पीछे छोड़
अपनाया ज़िन्दगी का नया मोड़

साजन की देहरी पर रखते ही पाँव
कंगना खनके झनझन
बज उठी पायल रुनझुन
इन्द्रधनुषी सपने बसे,पलकों की छाँव
चाह बस यही अब
आयें ज़िन्दगी में कितने भी पड़ाव
साथ न छूटे कभी साजन का
हो चाहे ज़िन्दगी की सुबह,चाहे शाम
हर पल बस तेरा ही ख्याल
हर पल बस तेरा ही नाम



रजनी छाबड़ा 

Sunday, November 15, 2009

nikhree nikhree

निखरी निखरी
ओस में नहाने के बाद
शबनमी धुप में जब
अधखिली कली अपना चेहरा
सुखाती है
कायनात निखरी निखरी
नज़र आती है
रजनी छाबरा

Thursday, November 12, 2009

mn ki khulee seep main

मन की खुली सीप में
ज़िन्दगी के सागर में
गिरती हैं बूँदें अनेक
ओर छा जाती है
एक हलचल
इस हलचल में
मन की खुली सीप में
गिरती हैं सिर्फ एक बूँद ऐसी
जो संजोई जाती है ता उमर
प्यार के एक सव्चे मोती सी
रजनी छाबरा

Wednesday, November 11, 2009

kaash!


 सांझ के धुंधलके में
अतीत की कड़ियाँ पिरोते
सुनहले खवाबों की
जोड़ तोड़ में मगन
तनहा थका बोझिल मन
दिल में उभेरता
बस एक ही अरमान
काश!वह अतीत
बन पता मेरा वर्तमान
रजनी छाबरा

Tuesday, November 10, 2009

MUKAMMAL KITAAB

मुक्कमल किताब
अधजगी रातों का ख्वाब हो गए
तुम नेरी मुकम्मल किताब हो गए
आस,विस्श्वास,मिला,जुदाई
गीत,ग़ज़ल.प्यार,तकरार
तुम सभी भावों का सार हो गए

तुम मेरा आईना हो गए
बेमतलब सी ज़िन्दगी का मायना हो गए
पलकों पे खुशियों की झलक
ख्यालों में हर पल महक
हंसी में उन्मुक्त पाखी की चहक
झेरनों का संगीत,अनकही प्रीत
पंखों की नींद,नींद के पंख
तुम हकीकत,तुम्ही ख्वाब हो गए
खामोश हैं लब,तुम मेरे अल्फाज़ हो गए
तुम मेरी मुकम्मल किताब हो गए.
rajni

Monday, November 9, 2009

PREHRI

प्रहरी
====
आँख भर आयी
निगाह गहरी
और गहरी हुई
एक सागर प्यार का
उमड़ आया
अंतस के अछोर क्षितिज
तभी जगा मन में
यह भय
तिरोहित न हो जाये
खुली आँख का स्वपन
और बस
झुक गयी पलकें
किस खजाने की
भला,यह प्रहरी हुई


Sunday, November 8, 2009

Tanhaa

मेले में अकेले
निगाहों के आखिरी छोर तक
जब बैचैन निगाहे तलाशती है तुम्हें
और तुम कहीं नज़र नहीं आते आस पास
और भी गहरा जाता हैं,मेले में अकेले
भीड़ में,तनहा होंने का एहसास.

Saturday, November 7, 2009

BANJARA MAN

जब बंजारा मन
ज़िन्दगी के किसी
अनजान मोड़ पे
पा जाता है
मनचाहा हमसफ़र
चाहता है,कभी न
रुके यह सफ़र
एक एक पल बन जाये
एक युग का और
सफ़र यूं ही चलता रहे
युग युगांतर

Friday, November 6, 2009

लोकतंत्र


लोरी---एक राजस्थानी लघुकथा
फुटपाथ पर जीवन बितानेवाली एक गरीब औरत,भूखे बालक को गोद में लिए बैठी थी.भूखे बालक की हालत बिगड़ती जा रही थी.
थोड़ी दूरी पर,बरसों से जनता को सुंदर,सुंदर,मीठे मीठे सपने दिखने वाले नेताजी भाषण बाँट रहे थे.
भाषण के बीच में बालक रो दिया.माँ ने कह,"चुप,सुन,नेताजी कितनी मीठी लोरी सुना रहें हैं." नेताजी कह रहे थे,"मैं देश से गरीबी-महंगाई मिटा दूंगा.देश फिर से सोने की चिड़िया बन जायेगा,घी दूध की नदियाँ बहेंगी
.कोई भूखा नहीं मरेगा...."
यह सुन कर खुश होती हुई माँ ने सुख समाचार सुनाने के लिए,बालक को झकझोरा.बालक भूख से मर चुका था.
लेखक:श्री लक्ष्मीनारायण रंगा
अनुवाद :रजनी छाबड़ा 





लोकतंत्र

एक निर्वाचित सदस्य ने दूसरे से पूछा,"तुम्हे कितने वोट मिले? दूसरे ने फट से जवाब दिया,"मुझे वोट मिलते नहीं, मैं तो वोट ले लेता हूँ, वोट मांगना मैं हराम समझता हूँ"
यह कहता कहता, वह हँस रहा था.मालूम नहीं किस पर.वोटरों पर ?चुनाव पर? लोकतंत्र पर ?
राजस्थानी लोक कथा
लेखक:श्री लक्ष्मी नारायण रंगा
अनुवादिका :रजनी छाबड़ा .

.

कैसा विचलन

कैसा विचलन
विस्तृत धरा का
हर एक कोना
कभी न कभी
प्रस्फुटित होना
कंटीली राहों से
कैसा विचलन
सुनते हैं
काँटों में भी है
फूल खिलने का चलन


रजनी छाबड़ा

Thursday, November 5, 2009

LORI : Rajasthani Story by L. K. Ranga "Hindi & English Tranversion by Rajni Chhabra

लोरी---एक राजस्थानी लघुकथा
फुटपाथ पर जीवन बितानेवाली एक गरीब औरत,भूखे बालक को गोद में लिए बैठी थी.भूखे बालक की हालत बिगड़ती जा रही थी.
थोड़ी दूरी पर,बरसों से जनता को सुंदर,सुंदर,मीठे मीठे सपने दिखने वाले नेताजी भाषण बाँट रहे थे.
भाषण के बीच में बालक रो दिया.माँ ने कह,"चुप,सुन,नेताजी कितनी मीठी लोरी सुना रहें हैं." नेताजी कह रहे थे,"मैं देश से गरीबी-महंगाई मिटा दूंगा.देश फिर से सोने की चिड़िया बन जायेगा,घी दूध की नदियाँ बहेंगी
.कोई भूखा नहीं मरेगा...."
यह सुन कर खुश होती हुई माँ ने सुख समाचार सुनाने के लिए,बालक को झकझोरा.बालक भूख से मर चुका था.
लेखक:श्री लक्ष्मीनारायण रंगा
अनुवाद :रजनी छाबड़ा 


LULLABY
 A destitute woman, dwelling on foot-path, was sitting, holding the hungry child in her lap. Condition of the child was worsening.

Not far away, a leader, very apt in art of showing public enchanting, sweet dreams, was delivering a speech.

The child started crying during speech of leader. Mother told him, " Be quiet and listen. How sweet is lullaby of our leader! Leader was saying, " I will eradicate poverty and dearness from our country and turn it again into the golden sparrow, Rivers of ghee and milk will flow; nobody will die of starvation...."

Pleased with this speech, mother  shook the child to narrate him this good news. The starving child had already breathed his last.

Monday, November 2, 2009

TERE INTEZAAR MAIN

तेरे इंतजार में
=========

आ,तूं,लौट आ
वरना  में यूं ही
जागती  रहूँगी
रात रात भर
मिटाती रहूँगी
लिख लिख के
तेरा नाम
रेत पे
और  हर सुबह
सुर्ख उनीदी आँखों से,
नींद से बोझिल पलकें लिए
काटती रहूँगी
कैलेंडर से
एक ओर तारीख
इस सच का सबूत
बनाते हुए, कि
एक और रोज़
तुझे याद किया,
तेरा नाम लिया
तुझे याद किया
तेरा नाम लिया.

Friday, October 30, 2009

TUMHI BATAO NA

तुम्ही बताओ ना
===========
मेरी नींद को पंख लगे जब
क्या तुम्हारी भी संग
उड़ा  ले गयी

या फिर अधजगी रातों  में
तारे गिनने की रस्म
मैं इकतरफा निभा गयी




Thursday, October 29, 2009

ज़िन्दगी एक ग़ज़ल थी

ज़िन्दगी एक ग़ज़ल थी
===============
ज़िन्दगी एक ग़ज़ल थी
अब अफसाना बन गयी
नियामत थी साथ तेरे
बाद तेरे सांस लेने का
बहाना बन गयी


रजनी छाबड़ा 

Wednesday, October 28, 2009

AAS KA PANCHI

आस का पंछी
मन इक् आस का पंछी
मत क़ैद करो इसे
क़ैद होंने के लिए
क्यां इंसान के
तन कम हैं

Monday, October 26, 2009

lahren

लहरें

सांझ का धुधलका सघन
सागर की लहरें और 
हिचकोले खाता तन मन
संग तुम्हारे महसूस किया मन ने
सागर में सागर सा विस्तार
असीम खुशियाँ, भरपूर प्यार

वक़्त के बेरहम सफ़र में तुम
ज़िन्दगी की सरहद के उस पार
सांझ के तारे में
करती हूँ तुम्हारा दीदार

सागर आज भी वही है
वही सांझ का धुंधलका सघन
हलचल नहीं है लहरों में
सतह लगती है शांत
ठहरा सागर, गहरा मन
रवान है अशांत मन के
विचारों का मंथन

अध्यापक दिवस प्रकाशन २००९,राजस्थान शिक्षा विभाग के काव्य संग्रह 'कविता कानन' में प्रकशित मेरी रचना
रजनी

Saturday, October 17, 2009

जाने कब

बेखुदी
के आलम मैं
ख़ुद को
यूँ पुकारती हूँ
जैसे तुम
बुला रहे हो मुझे
जाने कब उतरेगा
यह जूनून मेरा
कब आएगा
होश मुझे

Friday, October 16, 2009

सौहार्द की दिवाली

मेरा भारत महान
धरती के सीने पर सजे
विविधताओं के थाल समान
समेटे हर मजहब,जात पात
सम्प्रदाय ,संस्कृति और भाषा
मन मैं बस रही
बस एक ही अभिलाषा
हिंदू,मुस्लिम,सिख ,ईसाई
समझें एक दूसरे को भाई भाई
सब धेर्मों और संस्कृति का लेकर सार
करें इस देश की सार संम्भाल
सभी कर ले मन मैं एक विचार
दिवाली बने सौहार्द का त्यौहार
सब धरम दिए समान
आलोकित करें देश का आँगन
धर्म निरपेक्षता का तेल
मन दिए मैं
बनाये संबंधों को प्रगाढ़
दे कर प्यार का
उपहार

इस अंदाज़
से मने दिवाली का त्यौहार
मन मैं कोई दुर्भाव
न हो
जात धरम
का विचार न हो
बंध कर एकता के सूत्र मैं
जगमगाए यह देश महान

Thursday, October 15, 2009

अकाल

अब के बरस
यह कैसी दिवाली
मन रीता ,आँगन रीता
चहुँ ओर वीराना
खेत खलिहान
सब खाली खाली

अकाल ग्रसित गाँव
शहर के उजियारे के करीब
सिसक सिसक कर,
बयान कर रहे
उनके अन्धियारे
अपना नसीब

तुन भी उनकी रोशनी का
बन सकते हो सबब
गर इस दिवाली
अपने आँगन मैं
दो चार दीप
जला लो कम

नहीं छेड़ते उनके नौनिहाल
फुलझडी,पटाखे
मिठाई का राग
पर,उनके चूल्हे मैं भी
हो कुछ आग 
उनके आँगन मैं भी हो
दो चार रोशन चिराग़ 



















चिराग

तम्मनाओं की लौ से
रोशन किया
एक चिराग
तेरे नाम का
लाखों चिराग
तेरी यादों के
ख़ुद बखुद
झिलमिला उठे

Tuesday, October 13, 2009

अपनी किस्मत का तारा

जो सागर की इक् इक् लहर
गिन गिन कर बढ़ें
वो क्या उतरेंगे
तूफानी सैलाब मैं
खड़े रह कर सागर किनारे
थामे किसी चट्टान को
जो जूझना चाहेंगे
हर तूफान से
वो क्या हासिल करेंगे
ज़िन्दगी मैं
ज़िन्दगी के सागर मैं
गहरे डूब कर ही
किनारा मिलता है
तुफानो से जूझ कर
अपनी किस्मत का
तारा मिलता है

काफी हैं

एक खवाब
बेनूर आँख के लिए
एक आह
खामोश लब के लिए
एक पैबंद
चाक जिगर
सीने के लिए

काफी हैं
इतने सामान
मेरे
जीने
के लिए

Monday, October 12, 2009

धुंध

उदासियों की परत दर परत
धुंध नहीं
जो छंट जायेगी
इस कदर मन मैं
गहरी पैन्ठी हैं
अब इस जान के
साथ ही जायेगी

Friday, October 9, 2009

कसक

अधूरेपन की कसक
यूँ,ज़िंदगी मैं
घुल रही
स्याह रातों की
घनी स्याही
आसुओं से भी
नही धुल रही

Thursday, October 8, 2009

कल,आज और कल

आने वाला कल
कभी नहीं आता
क्योंकि कल
आते ही ,है
आज बन जता
फिर क्यों न हम
आज के पल पल को
सहेजे,समेटे और
संवारे जाएँ
ताकि
आज के साथ साथ
बिता हुआ कल भी
हमें पूर्णता का
एहसास दिला जाए

Wednesday, October 7, 2009

दावत

आज दावत है तुम्हे
मेरे दर्द मैं
शामिल होने की
मेरा दर्द-ऐ-दिल
समझने की
मेरे दर्द मैं ,रोने की
दम घुटता है
तनहा रोते रोते
तमन्ना नहीं
फिर बहार आए
तुम,हाँ,तुम
गेर दो अश्क ही
पोंछ दो
दिल-ऐ बेकरार को
करार आए

चाहत

गेर चाहत
एक गुनाह है
तो क्यों
झुकता है
आसमान
धेरती पर
और क्यों
घुमती है धेरती
सूरज के गिर्द

Tuesday, October 6, 2009

मन के बंद दरवाजे

इस से पहले की

अधूरेपन की कसक

तुम्हे चूर चूर कर दे

ता उमर हंसने

से मजबूर कर दे

खोल दो

मन के बंद दरवाजे

और घुटन को

कर लो दूर

दर्द हर दिल

मैं बस्ता है

दर्द से सभी का

पुश्तेनी रिश्ता है

कुछ उनकी सुनो

कुछ अपनी कहो

दर्द को सब

मिल जुल

कर सेहो

इस से पहले की दर्द

रिस रिस बन जाए नासूर

लगाकर हमदर्दी का मरहम

करो दर्द को कोसों दूर

बाँट लो सुख दुःख को

मन को,जीवन को

अमृत से

कर लो भरपूर

खोल लो मन के

बंद दरवाजे

और घुटन को

कर लो दूर

Monday, October 5, 2009

आज की नारी

आज की नारी
=========

आज की नारी
अबला नहीं
जो विषम
परिस्थितियों मै
टूटी माला के
मोतियों सी
बिखर जाती है


आज की नारी
सबला है,जिसे
टूट कर भी
जुड़ने और जोड़ने की
कला आती है

Saturday, October 3, 2009

मैं कहाँ थी

मैं जब वहां थी
तब भी, मैं
नहीं वहां थी
अपनों की
दुनिया के मेले मैं,
खो गयी मैं
न जाने कहा थी

बड़ों की खूबियों
का अनुकरण
कर  रहा  था
मेरे व्यक्तित्व 
का हरण 
मेरा निज 
परत  दर परत
दफ़न हो रहा था
और मैं अपने
दबते अस्तित्व से
 परेशान थी

कच्ची उमर मैं
ज़रूरत होती है
सहारे की
अपने पैरों
खड़े होने के बाद,
सहारे सहारे चलना
नादानी है बेल की
सोनजुही सी
पनपने की
सामर्थय मेरी
औरों के
सहारे सहारे चलना
क्यों मान लिया था
नियति  मेरी

मौन व्यथा और 
आंसुओं  से
सहिष्णु धरती का
सीना सींच
बरसों बाद 
अंकुरित हुई हूँ अब
संजोये मन मैं, 
पनपने की चाह
बोनसाई सा नही 
चाहती हूँ ज़िंदगी मैं
सागर सा विस्तार

नही जीना चाहती
पतंग की जिंदगी
लिए आकाश का विस्तार
जुड़ कर सच के धरातल से
अपनी ज़िंदगी का ख़ुद
बनाना चाहती हूँ आधार




रजनी छाबड़ा

















हम वो नहीं

हम वोह नहीं
जो आँसू और आहें
ओड़े सो लेते हैं
हालात को
मजबूरी समझ
ढ़ो लेते हैं
हम वोह हैं
जो उजड़े चमन मैं
उम्मीदों
के बीज
बो लेते हैं
इस जनम मैं
विरह तो क्या
फिर मिलेंगे
अगले जनम मैं
यही सोच कर
स्वपन आंखों मैं लिए
हम अधजगी रातों मैं
सो लेते हैं.









पैबंद

जाम आसूंओं के
लबालब पिए हैं
आह उभरे न कभी
होटों पर
होंट इस कदर
सिल लिए हैं
तार तार चाक
गिरेबान को
तेरी यादों के
पैबंद लगा लिए हैं

Friday, October 2, 2009

गाँधी की धरती

बिसरा दिया है हमने
बापू के तीन बंदरों को
अब तो बस
बुरा देखते है
बुरा बोलते हैं
बुरा सुनते हैं
गौतम और
गांधी की धरती
अब अक्सर है
रोती बिसूरती
बिसरा दिया है
हमने अहिंसा के
परम धर्म को
खून से लथपथ
मेरे बापू की धरती
गांधी सा मसीहा
धरती पर बार बार
न आयेगा
कौन हमें दुबारा
सत्य अहिंसा का
सबक सिखायेगा
क्यों न हम  ख़ुद ही
मसीहा बने शांति के
अग्रदूत बने
गांधी की
वैचारिक क्रांति  के
भुला कर ऊंच नीच
जात पात धर्म
का भेदभाव
भारत ही नही
सम्पूर्ण विशव में
लायें सद्भावना
का
सैलाब

रजनी छाबड़ा














माँ के आँचल सी

सर्दी में  उष्णता और
गर्मी में शीतलता
का एहसास
प्यार के ताने बने से बुनी
ममतामयी माँ के
आँचल सी
खादी केवल नाम नही हैं
खादी केवल काम नहीं हैं
खादी परिचायक है
स्वालंबन 
स्वाभिमान का
देश के प्रति
आपके अभिमान का
रंग उमंग और
प्यार के धागे से बुनी
देश ही नहीं
विदेश में भी पाए विस्तार
खादी को बनाइये
अपना जूनून
खादी दे
तन मन को सुकून

@रजनी छाबड़ा 

Tuesday, September 22, 2009

तुम्हारे लिए

बहारों के सब रंग
सिमट आयें तेरे दामन मैं
फूलों की महक सी
महकती रहो तुम
तुम चेह्को
नन्हे पाखी सी
खुशियाँ महके
सब और तेरी
छाया भी न कभी दुःख की
पड़े तुम पर
इतनी सी दुआ है मेरी

मन के बाज़ार मैं

टूट कर जुड भी जाएँ
तो दरार दिखती है
मन के बाज़ार मैं
फिर नही
वो शै
बिकती है

Friday, September 18, 2009

BAAT SIRF ITNEE SEE


क्या तुम सुन रही हो,माँ
=================
==
माँ, तुम अक्सर कहा करती थी
बबली, इतनी खामोश क्यों हो
कुछ तो बोला करो
मन के दरवाज़े पर दस्तक दो
शब्दों की आहट से खोला करो

अब मुखर हुई हूँ
तुम ही नहीं सुनने के लिए
विचारों का जो कारवां
तुम मेरे ज़हन में छोड़ गयी
वादा  है तुमसे
यूं ही बढ़ते रहने दूंगी

सारी कायनात में 
तुम्हारी झलक देख
सरल शब्दों की अभिव्यक्ति को
निर्मल सरिता सा
यूं ही बहने दूंगी

मेरा मौन अब स्वरित
हो गया है, माँ
क्या तुम सुन रही हो?





2. बात सिर्फ इतनी सी 
--------------------
बगिया की
शुष्क घास पर
तनहा बैठी वह
और सामने
आँखों में तैरते
फूलों से नाज़ुक
किल्कारते बच्चे

बगिया का वीरान कोना
अजनबी का
वहाँ से गुजरना
आंखों का चार होना

संस्कारों की जकड़न 
पहराबंद
उनमुक्त धड़कन
अचकचाए
शब्द
झुकी पलकें
जुबान खामोश
रह गया कुछ
अनसुना,अनकहा

लम्हा वो बीत गया
जीवन यूँ ही रीत गया

जान के भी
अनजान बन
कुछ
बिछुडे ऐसा
न मिल पाये
कभी फिर
जंगल की
दो शाखों सा

आहत मन की बात
सिर्फ इतनी
तुमने पहले क्यों
न कहा

वह  आदिकाल
से अकेली
वो अनंत काल
से उदास
और सामने
फूलों से नाज़ुक बच्चे
खेलते रहे/


















वसीयत

सहेज कर रखूँगी
मोतियों की तरह
जो आसूँओं की वसीयत
तुम मेरे नाम कर गए
मुस्कुरा कर सहूँगी
वक्त का हर वो सितम
जो न चाह कर भी
तुम मेरे नाम
कर गए

रोशन रखूंगी
ज़िंदगी की
अंधेरी रातों को
तेरे यादों के
चिराग से
यही यादों की
वसीयत,तुम मेरे
नाम कर गए

फिजायें मेरे देर से
अजनबी सी
गुजर जाती हैं
लाख बदलें
ज़माने के मौसम
अब तो बस
यही खिजा
का मौसम
तुम मेरे नाम कर गए


पथिक बादल

एक पथिक बादल
जो ठहरा था
पल भेर को
मेरे आँगन
अपने स्नेह की
शीतल छाया ले कर
वक्त की बेरहम
आंधियां
जाने
ज़िंदगी के
किस मोड़ पे
छोड़ आयी
रह रह कर मन में
एक कसक
सी उभेरआए
काश! एक
मुठी आसमान
मेरा भी होता
कैद कर लेती उस में
पथिक बादल को
मेरे धुप
से
सुलगते आँगन में
संदली हवाओं का
बसेरा होता






















हसरत

यह हसरत ही रही
ज़िन्दगी की राहों मैं
साथ तेरा होता
पार कर जाते
हँसते हुए
सहरा दर सहरा
गर हाथों मैं
हाथ तेरा होता

मिली रहती गर
तेरे चश्म-ऐ करम
की छाओं
मेरे धुप से सुलगते
आँगन मैं
खुशनुमा हवाओं का
बसेरा होता

मुझे मिली हैं नसीब मैं
जो स्याह दर स्याह रातें
गर तुम साथ होते
स्याह रातों के बाद
उजला सवेरा होता

ज़िंदगी है मेरी
तेरी अधूरी किताब
होता गेर
तेरे मेरे बस मैं
मुकमल यह अफसाना
मेरा होता

















-

सुकून

सुकून मैं कहाँ
वो मज़ा
जो दे बेताबी
जूनून देता बेताबी
हर पल पाने को
कामयाबी
सुकून है मंजिल
रास्ता बेताबी

रजनी छाबड़ा

Thursday, September 17, 2009

एहसास

ऐ हवाओं
ऐ फिजाओं
मुझे मेरे होने का
एहसास दिलाओ

साँस ले रही हूँ मैं
अपने जिंदा होने का
यकीन नही
क्या ज़िन्दगी के खिलाफ
यह जुर्म
संगीन नही

एक पल मैं जी लेना
सौ जनम
हर धडकन मैं
संगीत की धुन

हर स्पंदन मैं
पायल की रुनझुन
रेशमी आँचल का
हौले से सरसराना
निगाहों से निगाहों मैं
सब कहना
बिन
पंखों
के
आकाश
नापना
पूर्णता का एहसास
सब खवाबों की
बात हो गया
रीते लम्हे
रीता जीवन
जीवन तो बस
बनवास हो गया

सौंधी
यादों
के उपवन
फिर
महकाओ
ऐ हवाओं
ऐ फिजाओं 

मुझे मेरे होने का
अहसास
दिलाओ



































मन की पतंग

पतंग सा शोख मन
लिए चंचलता अपार
छूना चाहता है
पूरे नभ का विस्तार
पर्वत,सागर,अट्टालिकाएं
अनदेखी कर
सब बाधाएं
पग आगे ही आगे बढाएं

ज़िंदगी की थकान को
दूर करने के चाहिए
मन की पतंग
और सपनो का आस्मां
जिसमे मन भेर सके
बेहिचक,सतरंगी उड़ान

पर क्यों थमाएं डोर
पराये हाथों मैं
हर पल खौफ
रहे मन मैं
जाने कब कट जाएँ
कब लुट जाएँ

चंचलता,चपलता
लिए देखे मन
ज़िन्दगी के आईने
पर सच के धरातल
पर टिके कदम ही
देते ज़िंदगी को मायेने

आख़िरी छोर तक

निगाहों के
आख़िरी छोर तक
बैचैन निगाहें
ढूँढती हैं तुम्हे
और तुम
कही नहीं नज़र
आतए आस पास
तब और भी
गहरा जाता है
मेले मैं अकेले
भीढ़ मैं
तनहा होने
का एहसास

Wednesday, September 16, 2009

उल्फत

नींद को पंख लगे कभी
कभी पंखों को नींद आ गयी
बेताबी मैं सुकून कभी
कभी सुकून पे
बेताबी छा गयी
सुर्ख उनीदी आँखों से
तारे गिनने की रस्म
यही उल्फत अब
हमें रास आ गयी

Tuesday, September 15, 2009

कांच से ख्वाब

टूटे हुए कांच से
ख़्वाबों की
चुभन की कसम
हम टूटे भी
तो इस अंदाज़ से
चूर चूर हो गए, पर
कांच टूटने की
खनक न हुई
तेरे विसालगम मैं
उमर

गुजार दी हमने
एक तू है
जिसे
टूटने की
भनक भी

न हुई

बेखुदी

बेखुदी के आलम मैं
ख़ुद को यूँ
पुकारती हूँ,
जैसे तुम
पुकारते हो मुझे
जाने कब
उतरेगा
यह जूनून मेरा
कब आयेगा
होश मुझे

Saturday, September 12, 2009

सच्चा मोती

जीवन के अथाह
सागर में
गिरती हैं बूंदे अनेक
और छा जाती है
एक हलचल
इस हलचल मैं
मन की
खुली सीप मैं
गिरती हैं
सिर्फ़ एक बूँद ऐसी
जो संजोयी जाती है
तमाम उमर
प्यार के
सच्चे मोती सी

माँ

ज़िन्दगी और
मौत के बीच
zindagi से lachaar
से पड़ी थी तुम
मन ही मन तब चाहा था मैंने
की आज तक तुम मेरी माँ थी
आज मेरी बेटी बन जाओ
अपने आँचल की छाओं मैं
लेकर करूं तुम्हारा दुलार
अनगिनत
mannaten
खुदा से कर
मांगी थी तुम्हारी जान की खैर

बरसों तुमने मुझे
पाला पोसा और संवारा
सुख सुविधा ने
जब कभी भी किया
मुझ से किनारा
रातों के नींद
दिन का चैन
सभी कुछ मुझ पे वारा
मेरी आँखों मैं गेर कभी
दो आँसू भी उभरे
अपने स्नेहिल आँचल मैं
sokhलिए तुमने
एक अंकुर थी मैं
स्नेह, ममता
से सींच कर मुझे
छाया भेरा तरु
banayaa
ज़िंदगी
भेर मेरा मनोबल
बढाया
हर विषम परिस्थिति मैं
मुझ को समझाया
वो बेल कभी न होना तुम
जो परवान चढ़े
दूसरों के सहारे
अपना सहारा ख़ुद बनना
है तुम्हे,ताकि परवान चढा
सको उन्हें जो हैं तुम्हारे सहारे

पैर तुम्हे सहारा देने की तमन्ना
दिल मैं ही रह गयी
तुम ,हाँ, तुम जिसने सारा जीवन
सार्थकता से बिताया था
कभी किसी
के आगे
सेर न झुकाया था
जिस शान से जी थी
उसी शान से दुनिया छोड़ चली
हाँ, मैं ही भूल गयीथी
उन्हें बैसाखियों के सहारे चलना
कभी नही होता गवारा
जो हर हाल मैं
देते रहे हो सहारा





Thursday, September 10, 2009

प्रेहेरी

आँख भेर आयी
निगाह
गहरी
और गहरी हुई
एक सागर
प्यार का
उमड़ आया
अंतस के
अछोर क्षितिज

तभी जगा
मन मैं
यह भय
तिरोहित न
हो जाए
खुली आँख का
स्वपन
और बस
झुक गई पलकें

किस खजाने की
भला
यह प्रेहेरी हुई

पूर्णता की चाह मैं

या खुदा!
थोड़ा सा अधूरा रहने दे
मेरी ज़िन्दगी का प्याला
ताकि प्रयास जारी रहे
उसे पूरा भरने का

जब प्याला
भर जाता है लबालब
भय रहता है
उसके छलकने का
बिखरने का
जब प्याला
रहता है अधूरा
प्रयास रहता, उसमे
कुछ और कतरे
समेटने का

जो जूनून
पूर्णता
पाने के प्रयास मैं है
वो पूर्णता मैं कहाँ

लबालब प्याले मैं
और भेरने की
गुन्जायिश नही
रहती ज़िन्दगी से
और कोई
ख्वाहिश नहीं

पूर्णता बना देती
संतुष्ट और बेखबर
पूर्णता की
चाह करती
प्रयास को मुखेर

मुझे थोड़े से
अधूरेपन मैं ही जीने दे
घूँट घूँट ज़िन्दगी पीने दे
सतत प्रयासशील
ज़िन्दगी जीने दे



Tuesday, September 8, 2009

सांझ के अंधेरे मैं

सांझ
के झुटपुट
अंधेरे मैं
दुआ के लिए
उठा कर हाथ
क्या
मांगना
टूटते
हुए तारे से
जो अपना
ही
अस्तित्व
नहीं रख सकता
कायम
माँगना ही है तो मांगो
डूबते
हुए सूरज से
जो अस्त हो कर भी
नही होता पस्त
अस्त होता है वो,
एक नए सूर्योदय के लिए
अपनी स्वर्णिम किरणों से
रोशन करने को
सारा ज़हान

Saturday, September 5, 2009

ज्योति

है जिनके जीवन का
हर दिन रात जैसा
और हर रात
अमावस सी काली
क्या तुम उनकी बनोगे दीवाली
वो महसूस कर सकते हैं
मंद मंद चलती बयार
पर नही जानते
क्या होती है बहार
नही जानते वो
बहारों के रंग
कैसे करती तितलियाँ
अठखेलियाँ
फूलों के संग
क्या होते हैं इन्द्रधुनुष के रंग
अपनी
आंखों से दुनिया देखने की उमंग
बाद अपने क्या तुम दोगे
उन्हें हसीं सपने
देख सकेंगे वो
दुनिया तुम्हारी आंखों से
न रहेगी उनकी दुनिया काली
उजाला ही
उजाला
हेर दिन खुशहाली
हेर रात उनकी
दीवाली















Friday, September 4, 2009

तेरे बगैर

तेरे बगैर
ऐसे जिए
जा रही हूँ मैं
जैसे कोई
गुनाह
किए जा रही हूँ
मैं

Thursday, September 3, 2009

मेरी
ज़िन्दगी के आकाश पे
इन्द्रधनुष सा
उभरे तुम
नील गगन सा विस्तृत
तुम्हारा प्रेम
तन मन को पुलकित
हेरा भेरा कर देता
खरे सोने सा सच्चा
तुम्हारा प्रेम
जीवन मैं
आस विश्वास के
रंग देता
तुम्हारे
स्नेह की
पीली ,सुनहली
धुप मैं
नारंगी सपनों का
ताना बाना बुनते
संग तुम्हारे पाया
जीवन मैं
प्रेम की लालिमा
सा विस्तार

सपनो से
सजा
संवरा
अपना संसार
बाद
तुम्हारे
इन्द्रेध्नुष के और
रंग खो गए
बस, बैंजनी विषाद
की छाया
दूनी है
बिन तेरे ,मेरी ज़िन्दगी
सूनी सूनी
है

सहमी सहमी

मौत
जब बहुत करीब से
आ कर गुज़र
जाती है
दहशत का
लहराता हुआ
साया छोड़ जाती है
सहमी सहमी सी
रहती हैं
दिल की धड़कने
ज़िन्दगी की बस्ती को
बियाबान सा
छोड़ जाती है.

खामोश

जुबां
मैं भी रखती हूँ
मगर खामोश हूँ
क्या दूँ
दुनिया के
सवालों के
जवाब
ज़िन्दगी जब ख़ुद
एक सवाल
बन कर रह गई


यादों के साये मैं

बेकरारी के मौसम मैं
तनहा करार कहाँ पायें
चलें तेरी यादों के साए
सुकून की बयार पायें

गिरवी

करबद्ध
सर
झुकाए
सिकुचा ,सिमटा सा
खड़ा था वेह
झरोखे से
विकीर्णित
होती
किरणों के पास
अपनी कलाकृति के आगे

कैनवास दर्शा रह था
क्षितिज छूने की आस मैं
उनमुक्त उड़ान
भरते विहग
और सामने पर कटे
पाखी सा
घायल
एहसास लिए
वेह कलाकार
गिरवी
रेख चुका था
अपनी अनुभूतियाँ
कल्पनाएँ
,संम्वेद्नाएं
अपनी कला के
सरंक्षक को



Tuesday, September 1, 2009

पक्षपात

दोष लगेगा
उस पर
पक्षपात का
गेर
ज़रा सा भी दुःख
वो न देगा मुझे

मैं भी तो
एक जर्रा
उसकी कायनात का
उसके कारवां की
एक मुसाफिर
सुख दुःख की
छाओं मैं
चलते हैं जहाँ
सभी
अछूती रही गेर
दुनिया के
चलन से
तो क्या
बदनाम
न होगा
मेरा नसीब
लिखने वाला






Saturday, August 29, 2009

नई पहचान

अंधकार को
अपने दामन मैं समेटे
ज्यों दीप
बनाता है
अपनी रोशन पहचान
यूँ ही तुम
अश्क समेटे रहो
ख़ुद मैं
दुनिया को दो
सिर्फ़ मुस्कान
अपनी अनाम
ज़िन्दगी को
यूँ दो
एक नई पहचान

Friday, August 28, 2009

लम्हा लम्हा ज़िन्दगी

मैं लम्हा लम्हा ज़िन्दगी
टुकडों मैं जी लेती हूँ
कतरा कतरा ही सही
जब भी मिले
जीवन का अमृत
पी लेती हूँ
वक्त के सागर की रेत से
अंजुरी मैं बटोरे
रेत के कुछ कण
जुड़ गए हैं
मेरी हथेली के बीचों
बीच
उन्ही
रेत के कणों
से सागर
एहसास
संजों
लेती हूं
मैं लम्हा लम्हा जिन्दगी
टूकडों मैं जी लेती हूँ
कतरा कतरा ही सही
जब भी मिले
तेरे
नह

का अमृत
पी लेती
हूँ











Tuesday, August 25, 2009

वो आईना न रहा

उभरता था

जिसमे

ज़िन्दगी का अक्स

वो आईना न रहा

वही हैं मंजिलें

वही हैं मूकाम

मंजिल

मूकाम का

वो मायना न रहा

रेत के समंदर से

ज़िन्दगी
रेत का  समंदर
शोख सुनहली
रूपहली
रेत सा भेरा
आमंत्रित करता सा
प्रतीत होता है
एक अंजुरी ज़िन्दगी
 पा लेने की हसरत
लिए
प्रयास करती हूँ
रेत को अंजुरी मैं
समेटने का
फिसलती सी लगती है
ज़िन्दगी

क्षणिक
हताश हो
खोल देती हूँ
जब अंजुरी
झलक जाता है
हथेली के बीचों बीच
एक इकलौता
रेत का कण
जो फिसल 
गए
वो ज़िन्दगी के पल
कभी मेरे
थे
ही नहीं

मेरी ज़िन्दगी का
पल

तो
वो है
जो जुड़ गया
मेरी हथेली के बीचों बीच
एक इकलौता
रेत का कण
बन के









साथ

उमर भर
का साथ
निभ जाता
कभी एक ही
पल मैं
बुलबुले मैं
उभरने वाले
अक्स की उमर
होती है
फक्त एक ही
पल की

Monday, August 24, 2009

इंतज़ार

इंतज़ार
======


तू
लौट आ
वरना
मैं यूँ ही
जागती रहूंगी
रात रात भर
चाँदनी रातों मैं
लिख लिख कर
मिटाती रहूंगी
तेरा नाम
रेत पर

और हर  सुबह
नींद से
बोझिल पलकें लिए
सुर्ख,उनींदी
आंखों से
काटती
रहूंगी
कलेंडर से
एक और तारीख
इस सच का
सबूत
बनते हुए
कि
एक
और रोज़
तुझे
याद किया
तेरा नाम लिया
तुझे याद किया
तेरा नाम लिया

क्षितिज के पास

क्षितिज के पास
कर रहे हो
इंतज़ार मेरा
जहाँ
दो जहाँ
मिल कर भी
नही मिलते
अधूरी हैं
तमन्नाये
अधूरी
मिलन की आरजू
फूल अब
खिल कर भी
नही खिलते

Sunday, August 23, 2009

यादगार

खामोशी बोलती है
तेरी आंखों की जुबान से
अनकहे लम्हों की
कहानी बन जाती ही

हौले से
स्पर्श कर
पवन
खिला जाती ही
अधखिली कलि को
वो छूअन
ज़िन्दगी की रवानी
बन जाती ही

तेरी खुशबू ले कर
आती ही बयार
वो पल बन जाते हैं
ज़िन्दगी की यादगार


Friday, August 21, 2009

पहला कदम

फूलों से नाज़ुक पाँव से
ठिठक ठिठक कर
डगमगाते क़दमों से
चलने का प्रयास
पाँव ने अभी अभी तो
धेरती पैर टिकना सीखा है
गिरते,उठेते
लचकते संभलते
फिर चलते
ममत्व का हाथ थामे
आंखों मैं मूक अनुमोदन
की आस
ममत्व और स्नेह से
संबल लेता
प्रयास
सफलता
की किलकारी
पैंजनिया की रुनझुन से
गूंज उठती
घेर फुलवारी



















आस मैं

सुवास की आस मैं
भ्रमित
भटक रहा
कस्तूरी मृग
आनन्द का सागर
ख़ुद मैं समेटे
कदम
भटक रहे
दसों
दिग्


Thursday, August 20, 2009

मधुबन

कतरा
कतरा
नेह के
अमृत से
बनता पूर्ण
जीवन कलश
यादों की
बयार से
नेह की
फुहार से
बनता जीवन
मधुबन.


से


आस का पंछी

मन इक् आस का पंछी
मत कैद करो
इसकों
कैद होने के लिए
क्या इंसान के तन
कम हैं

हिमखंड

पिघलते हैं हिमखंड
सर्द रिश्तों के
प्यार सने
विश्वास की उष्णता
दे कर  देखो

Wednesday, August 19, 2009

आब-ऐ-हयात

मिलने
लगते हैं

जब ख्याल
 और जज़्बात
निखरी निखरी
नज़र आती है
कायनात
घुलने लगता है
ज़िन्दगी मैं
आब-ऐ-हयात

एहसास

एहसास जिंदा हैं तो
ज़िन्दगी है
वक्त के आँचल
मै समेटे
लम्हा लम्हा एहसास
खुदा की बंदगी हैं

Monday, August 17, 2009

गुलाब सी शान

गुलाब सी शान

वक़्त के अंधेरों से
मत घबरा,ऐ मन
बादलों के
आख़िरी छोर पर
झलकती बिजली का
तू कर आंकलन


खिलती है जब
शबनमी  धूप
सर्द हवाओं के बाद
उसकी नाज़ुक नाज़ुक
छुअन से होता है
गुलशन का
कोना कोना आबाद


सुख और दुःख
संग संग सहने में ही
जीवन की सहजता है
काँटों का लम्बा सफर
तय  कर के ही
ग़ुलाब शान से
महकता है/

रजनी छाबड़ा















don't awe
don't get tense
by dark times
in your life
just glance at the
silvery line
flashing on
margins of clouds.


when  mild sun shines
after cold nights
its tender touch
makes bloom
every corner of orchid


beauty of life lies
in bearing
thick and thin of life
with cool repose

a rose is crowned with glory
only after passing through
long journey of thorns.




















चिराग

तमनाओं की लौ से
रोशन किया
इक् चिराग
तेरे नाम का
लाखों चिराग
तेरी यादों के
ख़ुद b ख़ुद
jhilmila उठे





































ज़िन्दगी

जिन्दगी इक
ग़ज़ल थी
अब अफसाना
बन गई
नियामत थी
साथ तेरे
बाद तेरे
साँस लेने का
बहाना बन गई








Sunday, August 16, 2009

रिश्ता

मन और आंखों
के बीच
गहरा रिश्ता है
मन का नासूर
आँखों से
अश्क बन
रिश्ता है

बेगाने

घेर की बातें
जब निकली घेर से
इन के अफसाने
बन गए
मेरे अश्क
अब मेरे नही
छलके ज्यों ही आँख से
यह बेगाने बन गए




चिंगारी

दफ़न हुई
यादों की राख मैं
क्यों सुलग जाती है
चिंगारी सी
ज़िक्र होता है
जब भी तेरा
जाने अनजाने
नही थमते आंसूं
फिर किसी बहाने

Friday, August 14, 2009

वतन की आन

विजय दिवस पर अमर जवानों को समर्पित
-------------------------------------------
वतन की आन
----------------
जिन्हें प्यारी होती है
देश की आन
उनके लिए क्या
मायना रखती है
अपनी जान
मारेंगे या
मर  मिटेंगे
हो जायेंगे कुर्बान
उनकी शहादत से
सलामत रहेगी
देश की शान


रजनी छाबड़ा 

Monday, August 10, 2009

लहेरें

सांझ का धुंधलका
सघन
सागेर की लहरें
और
हिचकोले लेता
तन मन
संग तुम्हारे
महसूस किया
मन ने
सागर मैं
saagar sa vistaar
असीम खुशियाँ
अनंत
प्यार
वक्त के
बेरहम
सफर
मैं
तुम, ज़िन्दगी की
सरहद
के
उस पार
सांझ के तारे
मैं

करती हूँ
तुम्हारा
दीदार
सागर आज भी वही है
वही है
सांझ का धुंधलका
सघन
हलचल नही है
लहरों
मैं
सतह लगती है
ठहरा सागर
गहरा मन
रवां
है
मन के
ashant
vicharon
ka manthan


































नजरिया

ज़िन्दगी के फिसलते लमहे
आँचल मैं न
समेत पाने की कसक
बदला नज़र आता है
वक्त का नजरिया
पूरे गिलास मैं सिमटा
आधा पानी
मन की तरंग मे दिखता
आधा भेरा
रीते लम्हों में
आधा खाली



होने से,न होने तक

होने से
न होने
तक का
अन्तराल
गहरे समेटे
अपरिमित सवाल
वापिस ही
ले लेना है
तब देते ही
क्यों हो
न मिली होती
फिरदौस
न कचोटता
लुटने का
एहसास

Saturday, August 8, 2009

मन विहग

आकुल निगाहें
बेकल राहें
विलुप्त होता
अंनुपथ
क्षितिज
छूने की आस
अतृप्त प्यास
तपती मरुधरामैं सावनी
बयार
नेह मेह
का बरसना
ज़िन्दगी का सरसना
भ्रामक स्वप्न
खुली आँख का
छल
मन विहग के
पर कतरना
यही
यथार्थ का धरातल







































कैसा गिला

सुर्ख उनीदीं ऑंखें
पिछली रात की
करवटें
रतजगा
न ख़तम होने वाला
सिलसिला
विरहन का
यही
अमावसी
नसीब
किस से
शिकवा
कैसा
गिला







झरोखे से

मन के बंद
अंधेरे कमरे में
तेरी यादों के झरोखे से
जब धूप छनी किरणे
आती हैं
दो पल को ही सही
अंधेरे में उजाले का
भरम जगा जाती हैं


रजनी छाबड़ा 

संदली एहसास

फिजाओं मैं
फैली हुई
पनीली हवाओं से तुम
नज़र नही आते
बयार से
नेह बरसाते
धेरती का दामन
नही छु पाते
अनछुए
स्पर्ष से
तुम अपने होने का
संदली एहसास
दिला जाते




कैसा विचलन

विस्तृत
धेरा
का
हर एक कोना
कभी न कभी
प्रस्फुटित
होना
कंटीली राहों पे
कैसा विचलन
सुनते हैं है
काँटों मैं भी है
फूल खिलने का चलन



































































Wednesday, July 29, 2009

तकदीर

गर रोने से ही
बदल सकती तकदीर
तो यह ज़मीं बस
सैलाब होती
गर अश्क बहाने से
ही होती
हेर गम की तदबीर
यह नम आँखें
कभी बे आब
न होती















i








Wednesday, July 22, 2009

किरदार

वक्त के लंबे सफ़र मैं
किरदार यूँ बदल जाते हैं
वो जो कल
चला करते थे
थामे अंगुली हमारी
वही आज आगे बढ़
हमें राह दिखाते हैं

Tuesday, July 21, 2009

BIASED

HE WILL BE BLAMED
FOR BEING BIASED
IF HE WON'T EVER
MAKE ME SUFFER
I AM ALSO
A SEGMENT OF
HIS CREATION
A PASSENGER OF
SAME CARAVAN
WHERE ALL
MOVE FORWARD
IN SHADE OF
PINK N BLUE
OF LIFE
IF I REMAIN
UNAFFECTED BY
TREND OF THIS WORLD
WON'T THE FRAMER
OF MY DESTINY
BE DEFAMED
FOR BEING BIASED

Friday, July 17, 2009

SPEECHLESS

THOUSAND SPEECHES
WON'T TEMPT ME
I CAN SPEAK
BUT I AM MUM

Thursday, July 16, 2009

रेत की दीवार

ज़िन्दगी रेत की दीवार
ज़माने मैं
आँधियों की भेरमार
जाने कब
गिर जाए यह सतही दीवार
फिर क्यों ज़िन्दगी से
इतना प्यार




Thursday, July 9, 2009

?

O!MOTHER
CONFINED IN YOUR WOMB
SCARED OF MY
INTERROGATIVE EXISTENCE
I BESEECH YOU TO
ANSWER MY QUESTION.

COZ I AM A GIRL
I HAVE BECOME UNWANTED?
ARE YOU ASHAMED OF
BRINGING ME INTO THIS UNIVERSE?
YOU WOULD HAVE HELD YOUR HEAD HIGH
AND FELT PRESTIGIOUS IN SOCIETY
BY GIVING BIRTH TO A GUY?

I AM A SEGMENT OF YOU
WON'T THE VERY THOUGHT
OF EXTINCTING ME
MAKE U STIR N SIGH?

I MAY NOT BE ABLE TO
BEAUTIFY YOUR ORCHID LIKE ROSE
DEMANDING SPECIAL ATTENTION
I WILL FLOURISH LIKE'MARFGO'
GROWING UNCARED
WITHOUR CAUSING ANY TENSION
BEARING LIFE'S UPS AND DOWNS
WON'T CAUSE ME FROWNS.

WITHOUT ME,WHO WILL APPRECIATE
CONSANGUINITY OF BROTHER N SISTER?
WITHOUT ME WHO WILL CELEBTATE
RAKHI N BHAIYA DOOJ, FESTIVALS GREAT

HOW WILL DURGA,LAXMI AND SARASWATI
INCARNATE ON THIS EARTH?
AND WITHOUT ME,THE EARTH'S PRIDE
HOW WILL GROOM GET BRIDE?

MOVED BY INVOKING QUESTION OF
ENTITY OF THE WOMB
MOTHER TRIED TO PROVIDE HER SOLACE
CONVINCING HER WITH MOTHERLY GRACE.

OH!MY YET TO BE BORN
DARLING DAUGHTER
I CAN SENSE YOUT BREATH
YOUR MOVEMENTS,YOUR SENSATION
I M YOUR MOTHER
YOU ARE MY FASCINATION.

IT IS MY SACRED DUTY TO GENERATE YOU
I KNOW ONLY ONE GIST OG LIFE
NURTURED ON SELFLESS SELF
WHETHER IT BE A GIRL OR BOY
BOTH ARE EQUAL IN MOTHER'S EYES

YOU ALIGHT IN THIS WORLD
SAFE N HEALTHY
IS MY CHIEF CONCERN
INCARNATION OF CREATION,POWER N ENERGY
YOU FLOURISH IN THE DENSE SHADE OF AFFECTION
I NOURISH YOU AS FIRM FOUNDATION.

Wednesday, July 8, 2009

दिल के मौसम

होती है कभी
फूलों से काँटों सी चुभन
कभी काँटों मैं
फूल खिला करते हैं

बहार मैं वीराना
कभी
वीराने मैं
बहार का एहसास 

यह दिल के मौसम
यूँ बेमौसम
बदला करते हैं

Tuesday, July 7, 2009

TEACHINGS

WHEN MOTHER
WENT TO
HER VILLAGE
I REMAINED
AT HOME
PERFORMED ALL
THE CHORES
CLEANING UTENSILS
SWEEPING,COOKING.
WHEN MOTHER
WAS BED STICKEN
I GOT READY
MY YOUNGER
BROTHERS N SISTERS
GIVING THEM BATH
WASHING THEIR CLOTHES.
FOR SENDING THEM SCHOOL
ARRANGED THEIR BAGS
SEARCHING FOR THEIR
RUBBER,PENCIL
AND GEOMETRY BOX
STANDING WAYSIDE
WAITING FOR THEIR
SCHOOL BUS,RICKSHAW

THUS,MY MOTHER
IN HER ABSENCE
TAUGHT ME
HOW TO BE
A MOTHER
------------------------------------------------------------------------------------THE POEMS "RECALL'N 'TEACHINGS'HAVE BEEN ORIGINALLY COMPOSED IN RAJASTHANI BY SMT.SANTOSH MAYA MOHAN N TRANSLATED INTO ENGLISH BY MYSELF RAJNI CHHABRA

RECALL

LYING UNOCCUPIED
ARE YOUR
ALL THE SEVEN CHAMBERS
FROM SUNDAY TO SATURDAY
BECAUSE
IN EACH AND
EVERY CHAMBER
YOU LEAVE
IMPRESSION OF
KUMKUM SMEARED FEET.
WITHOUT HALTING
MOVE AWAY
ON YOUR
FURTHER JOURNEY
MY ONLY TREASURE IS
RECALL OF YOUR
RISING N SETTING
-----------------------------------------------------------------------------------

Monday, July 6, 2009

HANDKERCHIEF

I got this handkerchief three years ago.I kiss it delicately,as if it won't be able to bear even a little bit of roughness and if I treated it roughly,won't be able to hold itself together.A long lost sacred fragrance started twitching in my blood again.
It wa a moment of departure.A Maruti car decorated wid flowers was standing behind the bus,hired for a marriage party.Ahead a crowd of ladies,crying n shedding tears.Shuchi was woalking towards the car,her head hung low.She was walking in the footsteps of her bridegroom.The bridegroom was holding her "pallu',tied in a knot n thrown over his right shoulder.The other end was tied to the border of Shuchi's dupatta
Shuchi was pulled along by this knot.I was standing, hiding my face,at the other end, alongwith Shuchi's Ji Sa(father).Just at that moment,amall girl came running and said,"Do you have a handkerchief? Didi needs it for wiping her tears.
Within a flash,I took out my milky white handkerchief n handed it over to her.Then,I beheld Shuchi,gently touching hankie to her eyes.She was least concious of the fact that her face would forever be embossed in the hankie for me.Before she alighted the car,the same youngster came running and handed the kerchief back to me
.I hastily folded it and slipped into my pocket.It is still lying with me since,unwashed, and still glowing,smudged with tears and inked with 'kajal' and the first vermilion applied on Shuchi's forehead.
Who is Shuchi to me?There is a small story need to be mentioned.My family and I arrived in the town,in which Shuchi was born and brought up,some years ago.As is customary in small towns,very soon, we made our acquaintance with her father.By and by, we got to know the entire family.Our families grew close.There was a considerable age gap, between Shuchi;s father and me.He was tghe father of a grown up daughter like Shuchi,while my only son was not yet of school going age.Although, each and every member of that family,showered tremenduous affection on my family,yet Shichi's affection for my son knew no bounds.She used to say,''He is absolutely like you."
Shuchi was very soft spoken.Was that the secret of her beauty? I thought about this a lot.She used to wear a very little make-up, but it was always so perfect that the beauty of any other glamorous woman in a gathering would pale before her serene, simple charm.She hardly talked to me.It was limited to exchanging greetings or little querries.Of course, she chatted a lot with my son.Thus, we stayed for many years.Years later,after we had settled down in Calcutta,the invitation arrived.
From a practical point of view,my wife did not deem it fit to travel so far, to attend the wedding.In her opinion,sending a nice wedding gift would suffice..But, i had to attend Shuchi's wedding.Other than close family ties,the reasons why i had to attend the wedding was purely personal.Though, the reasons were insignificant, almost unaccounted for.
Actually, both the families had very good relations.Nothing was hidden from anyone.There was only one single incident that Shuchi and I had kept secret from the others and it still remains one, till this day.Such incidents don't happen just like that,and at the time, i had nrver expected it.I remember in the beginning,when such a longing ,arose in me, I lulled it.Then, all of a sudden, one day, Shuchi knocked at my door.
I was alone at home those days.I was preparing for some employment examination..Shucji's Ji Sa insisted that,I shift to his home.He insisted that I should stay with them n study till my wife returned.I used to get up at 3a.m.to study in those days.But God knows what change came over me and I started sleeping so soundly that even the sound of amn alarm clock couldn't wake me up.Ultimately, it was decided that Shuchi would keep the alarm clock with her and would come to wake me up every morning.This worked perfectly.Shuchi herself would come n call out,"Get up, uncle, it is time to study."
Upon hearing Shuchi's voice,I would wake up.After serving me tea, she would go back to sleep.I never noticed that she didn't ever touch me until, i received that chit of paper from her one morning.It was just a small note.But, it was like a wake up call.The letter shuchi had written on a piece of white paper and folded into four.i found it in the pocket of my kurta.Shuchi had asked,"Can I wake you up by touching you?'
"Yes,"I added my reply to her letter and handed it back to her.
The incident happened in the morning.The same evening, my better half returned.i shifted back to my house.After that,I never got a chance of staying at Shuchi's place.When I moved to Calcutta,negotiations for Shuchi's marriage were on.I got this invitation in Calcutta n came to attend the wedding.Smearing my handkerchief with her kaajal-stained tears and the maiden vermilion from her forehead,she alighted the car.Three years have elapsed.I have no letter from her.No news is good news.I think,she must be well settled now.
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This is a Rajasthani story orignally written by Sh.Malchand Tiwari n translated into English by myself..Rajni Chhabra.

BLISS

BLISSFUL IS LIFE
WHEN MINDS CONNECT
CARING N SHARING
LEAVES DEEP IMPACT
CREATING EVERLASTING EFFECT
MAKING U FEEL SO PERFECT
GIVING NEW INTERPRETETION
TO UR LIFE
PUTTING AN END
TO UR SOLITARY STRIFE

Thursday, July 2, 2009

WANDERING CLOUD

A WANDERING CLOUD
THAT HAD HALTED
IN MY COUTRYARD
FOR A WHILE
SHOWERING ITS
BLISSFUL SHADE AND
PROTECTIVE AFFECTION
GOD ONLY KNOWS
WHERE HAD IT
BEEN SWAYED
BY MERCILESS
WINDS OF TIME
A PANG STIRS
MY MIND
OH THAT I COULD OWN
A FISTFUL SKY
TO GRAB THAT CLOUD
INSTEAD OF
SCORCHED COUTYARD
I WOULD HAVE BREATHED
SANDAL SMEARED BREEZE
IN MY COURTYARD.

CAGE

 CAGE

It was a big zoo.I was strolling in front of a cage on which hung a board proclaiming Extremely Violent Beast'. These cages had a strange design;at some places, they were high walled,at some , the walls were low,at some places ,they jut out, at some places, they receded and some had the walls on the left side,while others had it on the right. The cages that are high,have a staircase alongside.these stairs lead you to a long verandah,having many small cages,all in a straight line.

I came across him here,holding a canister. His fingers were stained with bits of flesh.He was not an animal,but a human being. Picking pieces of flesh from the canister, he was throwing them into the cages for the animals. Suddenly, my attention was captured.Though, some flesh might be still left in the canister, on his own body, there was no flesh visible at all, think about it. In the given situation, is it not the limit of irony. I was even more surprised when that bony figure, laughing with a carefree swagger, said to me,"Have you come from downstairs? I left a cage open there.The very stairs that you came up by,t he lion might come up too."

I started bleating like a goat.I thought that if a goat were listening to me, it might feel jealous of my goat like tendency to bleat. In my fright,I had even surpassed a goat.

I could hear thumping sounds on the stairs. I was staring at the staircase, aghast. Some animals were shrieking in their cages, some were twittering, chirping; but all of them were safe, because they were in their cages. Suddenly, I felt, all I needed at this moment. was an empty cage, but there was no empty cage in sight, no cage to run into.Wasn't there a deeper irony of fate that I had been confronted with.
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This is a short story in Rajasthani, by Sh.Malchand Tiwari, translated into English by me.

MORTGAGED

IN THE PALATIAL CORRIDRS
WITH RAYS OF LIGHT
SCATTERING PROFUSELY
THROUGH JHAROKHAS
LIKE A BONDED SLAVE
YOU WERE STANDING
WITH FOLDED HANDS
CLOSE TO YOUR PAINTING
DEPICTING LIMITLESS SKY
AND BIRDS LONGING
TO TOUCH THE HORIZON
WHEN THE PATRON
WAS BEHOLDING IT
YOU STOOD STILL
AS IF YOU WERE
NOT THE BREATH
BEHIND THIS BEAUTY
YOUR WINGS COULD
NOT FLUTTER
CLIPPED N MORTGAGED
TO THE PATRON
WERE YOUR REVERIES
INSPIRATION AND VISION.