Saturday, August 8, 2009

कैसा विचलन

विस्तृत
धेरा
का
हर एक कोना
कभी न कभी
प्रस्फुटित
होना
कंटीली राहों पे
कैसा विचलन
सुनते हैं है
काँटों मैं भी है
फूल खिलने का चलन



































































No comments:

Post a Comment