Saturday, August 29, 2009

नई पहचान

अंधकार को
अपने दामन मैं समेटे
ज्यों दीप
बनाता है
अपनी रोशन पहचान
यूँ ही तुम
अश्क समेटे रहो
ख़ुद मैं
दुनिया को दो
सिर्फ़ मुस्कान
अपनी अनाम
ज़िन्दगी को
यूँ दो
एक नई पहचान

Friday, August 28, 2009

लम्हा लम्हा ज़िन्दगी

मैं लम्हा लम्हा ज़िन्दगी
टुकडों मैं जी लेती हूँ
कतरा कतरा ही सही
जब भी मिले
जीवन का अमृत
पी लेती हूँ
वक्त के सागर की रेत से
अंजुरी मैं बटोरे
रेत के कुछ कण
जुड़ गए हैं
मेरी हथेली के बीचों
बीच
उन्ही
रेत के कणों
से सागर
एहसास
संजों
लेती हूं
मैं लम्हा लम्हा जिन्दगी
टूकडों मैं जी लेती हूँ
कतरा कतरा ही सही
जब भी मिले
तेरे
नह

का अमृत
पी लेती
हूँ











Tuesday, August 25, 2009

वो आईना न रहा

उभरता था

जिसमे

ज़िन्दगी का अक्स

वो आईना न रहा

वही हैं मंजिलें

वही हैं मूकाम

मंजिल

मूकाम का

वो मायना न रहा

रेत के समंदर से

ज़िन्दगी
रेत का  समंदर
शोख सुनहली
रूपहली
रेत सा भेरा
आमंत्रित करता सा
प्रतीत होता है
एक अंजुरी ज़िन्दगी
 पा लेने की हसरत
लिए
प्रयास करती हूँ
रेत को अंजुरी मैं
समेटने का
फिसलती सी लगती है
ज़िन्दगी

क्षणिक
हताश हो
खोल देती हूँ
जब अंजुरी
झलक जाता है
हथेली के बीचों बीच
एक इकलौता
रेत का कण
जो फिसल 
गए
वो ज़िन्दगी के पल
कभी मेरे
थे
ही नहीं

मेरी ज़िन्दगी का
पल

तो
वो है
जो जुड़ गया
मेरी हथेली के बीचों बीच
एक इकलौता
रेत का कण
बन के









साथ

उमर भर
का साथ
निभ जाता
कभी एक ही
पल मैं
बुलबुले मैं
उभरने वाले
अक्स की उमर
होती है
फक्त एक ही
पल की

Monday, August 24, 2009

इंतज़ार

इंतज़ार
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तू
लौट आ
वरना
मैं यूँ ही
जागती रहूंगी
रात रात भर
चाँदनी रातों मैं
लिख लिख कर
मिटाती रहूंगी
तेरा नाम
रेत पर

और हर  सुबह
नींद से
बोझिल पलकें लिए
सुर्ख,उनींदी
आंखों से
काटती
रहूंगी
कलेंडर से
एक और तारीख
इस सच का
सबूत
बनते हुए
कि
एक
और रोज़
तुझे
याद किया
तेरा नाम लिया
तुझे याद किया
तेरा नाम लिया

क्षितिज के पास

क्षितिज के पास
कर रहे हो
इंतज़ार मेरा
जहाँ
दो जहाँ
मिल कर भी
नही मिलते
अधूरी हैं
तमन्नाये
अधूरी
मिलन की आरजू
फूल अब
खिल कर भी
नही खिलते

Sunday, August 23, 2009

यादगार

खामोशी बोलती है
तेरी आंखों की जुबान से
अनकहे लम्हों की
कहानी बन जाती ही

हौले से
स्पर्श कर
पवन
खिला जाती ही
अधखिली कलि को
वो छूअन
ज़िन्दगी की रवानी
बन जाती ही

तेरी खुशबू ले कर
आती ही बयार
वो पल बन जाते हैं
ज़िन्दगी की यादगार


Friday, August 21, 2009

पहला कदम

फूलों से नाज़ुक पाँव से
ठिठक ठिठक कर
डगमगाते क़दमों से
चलने का प्रयास
पाँव ने अभी अभी तो
धेरती पैर टिकना सीखा है
गिरते,उठेते
लचकते संभलते
फिर चलते
ममत्व का हाथ थामे
आंखों मैं मूक अनुमोदन
की आस
ममत्व और स्नेह से
संबल लेता
प्रयास
सफलता
की किलकारी
पैंजनिया की रुनझुन से
गूंज उठती
घेर फुलवारी



















आस मैं

सुवास की आस मैं
भ्रमित
भटक रहा
कस्तूरी मृग
आनन्द का सागर
ख़ुद मैं समेटे
कदम
भटक रहे
दसों
दिग्


Thursday, August 20, 2009

मधुबन

कतरा
कतरा
नेह के
अमृत से
बनता पूर्ण
जीवन कलश
यादों की
बयार से
नेह की
फुहार से
बनता जीवन
मधुबन.


से


आस का पंछी

मन इक् आस का पंछी
मत कैद करो
इसकों
कैद होने के लिए
क्या इंसान के तन
कम हैं

हिमखंड

पिघलते हैं हिमखंड
सर्द रिश्तों के
प्यार सने
विश्वास की उष्णता
दे कर  देखो

Wednesday, August 19, 2009

आब-ऐ-हयात

मिलने
लगते हैं

जब ख्याल
 और जज़्बात
निखरी निखरी
नज़र आती है
कायनात
घुलने लगता है
ज़िन्दगी मैं
आब-ऐ-हयात

एहसास

एहसास जिंदा हैं तो
ज़िन्दगी है
वक्त के आँचल
मै समेटे
लम्हा लम्हा एहसास
खुदा की बंदगी हैं

Monday, August 17, 2009

गुलाब सी शान

गुलाब सी शान

वक़्त के अंधेरों से
मत घबरा,ऐ मन
बादलों के
आख़िरी छोर पर
झलकती बिजली का
तू कर आंकलन


खिलती है जब
शबनमी  धूप
सर्द हवाओं के बाद
उसकी नाज़ुक नाज़ुक
छुअन से होता है
गुलशन का
कोना कोना आबाद


सुख और दुःख
संग संग सहने में ही
जीवन की सहजता है
काँटों का लम्बा सफर
तय  कर के ही
ग़ुलाब शान से
महकता है/

रजनी छाबड़ा















don't awe
don't get tense
by dark times
in your life
just glance at the
silvery line
flashing on
margins of clouds.


when  mild sun shines
after cold nights
its tender touch
makes bloom
every corner of orchid


beauty of life lies
in bearing
thick and thin of life
with cool repose

a rose is crowned with glory
only after passing through
long journey of thorns.




















चिराग

तमनाओं की लौ से
रोशन किया
इक् चिराग
तेरे नाम का
लाखों चिराग
तेरी यादों के
ख़ुद b ख़ुद
jhilmila उठे





































ज़िन्दगी

जिन्दगी इक
ग़ज़ल थी
अब अफसाना
बन गई
नियामत थी
साथ तेरे
बाद तेरे
साँस लेने का
बहाना बन गई








Sunday, August 16, 2009

रिश्ता

मन और आंखों
के बीच
गहरा रिश्ता है
मन का नासूर
आँखों से
अश्क बन
रिश्ता है

बेगाने

घेर की बातें
जब निकली घेर से
इन के अफसाने
बन गए
मेरे अश्क
अब मेरे नही
छलके ज्यों ही आँख से
यह बेगाने बन गए




चिंगारी

दफ़न हुई
यादों की राख मैं
क्यों सुलग जाती है
चिंगारी सी
ज़िक्र होता है
जब भी तेरा
जाने अनजाने
नही थमते आंसूं
फिर किसी बहाने

Friday, August 14, 2009

वतन की आन

विजय दिवस पर अमर जवानों को समर्पित
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वतन की आन
----------------
जिन्हें प्यारी होती है
देश की आन
उनके लिए क्या
मायना रखती है
अपनी जान
मारेंगे या
मर  मिटेंगे
हो जायेंगे कुर्बान
उनकी शहादत से
सलामत रहेगी
देश की शान


रजनी छाबड़ा 

Monday, August 10, 2009

लहेरें

सांझ का धुंधलका
सघन
सागेर की लहरें
और
हिचकोले लेता
तन मन
संग तुम्हारे
महसूस किया
मन ने
सागर मैं
saagar sa vistaar
असीम खुशियाँ
अनंत
प्यार
वक्त के
बेरहम
सफर
मैं
तुम, ज़िन्दगी की
सरहद
के
उस पार
सांझ के तारे
मैं

करती हूँ
तुम्हारा
दीदार
सागर आज भी वही है
वही है
सांझ का धुंधलका
सघन
हलचल नही है
लहरों
मैं
सतह लगती है
ठहरा सागर
गहरा मन
रवां
है
मन के
ashant
vicharon
ka manthan


































नजरिया

ज़िन्दगी के फिसलते लमहे
आँचल मैं न
समेत पाने की कसक
बदला नज़र आता है
वक्त का नजरिया
पूरे गिलास मैं सिमटा
आधा पानी
मन की तरंग मे दिखता
आधा भेरा
रीते लम्हों में
आधा खाली



होने से,न होने तक

होने से
न होने
तक का
अन्तराल
गहरे समेटे
अपरिमित सवाल
वापिस ही
ले लेना है
तब देते ही
क्यों हो
न मिली होती
फिरदौस
न कचोटता
लुटने का
एहसास

Saturday, August 8, 2009

मन विहग

आकुल निगाहें
बेकल राहें
विलुप्त होता
अंनुपथ
क्षितिज
छूने की आस
अतृप्त प्यास
तपती मरुधरामैं सावनी
बयार
नेह मेह
का बरसना
ज़िन्दगी का सरसना
भ्रामक स्वप्न
खुली आँख का
छल
मन विहग के
पर कतरना
यही
यथार्थ का धरातल







































कैसा गिला

सुर्ख उनीदीं ऑंखें
पिछली रात की
करवटें
रतजगा
न ख़तम होने वाला
सिलसिला
विरहन का
यही
अमावसी
नसीब
किस से
शिकवा
कैसा
गिला







झरोखे से

मन के बंद
अंधेरे कमरे में
तेरी यादों के झरोखे से
जब धूप छनी किरणे
आती हैं
दो पल को ही सही
अंधेरे में उजाले का
भरम जगा जाती हैं


रजनी छाबड़ा 

संदली एहसास

फिजाओं मैं
फैली हुई
पनीली हवाओं से तुम
नज़र नही आते
बयार से
नेह बरसाते
धेरती का दामन
नही छु पाते
अनछुए
स्पर्ष से
तुम अपने होने का
संदली एहसास
दिला जाते




कैसा विचलन

विस्तृत
धेरा
का
हर एक कोना
कभी न कभी
प्रस्फुटित
होना
कंटीली राहों पे
कैसा विचलन
सुनते हैं है
काँटों मैं भी है
फूल खिलने का चलन