Expression
Tuesday, September 15, 2009
कांच से ख्वाब
टूटे हुए कांच से
ख़्वाबों की
चुभन की कसम
हम टूटे भी
तो इस अंदाज़ से
चूर चूर हो गए, पर
कांच टूटने की
खनक न हुई
तेरे विसाल
ऐ
गम
मैं
उमर
गुजार
दी
हमने
एक तू है
जिसे
टूटने की
भनक भी
न हुई
बेखुदी
बेखुदी के आलम मैं
ख़ुद को यूँ
पुकारती हूँ,
जैसे तुम
पुकारते हो मुझे
जाने कब
उतरेगा
यह जूनून मेरा
कब आयेगा
होश मुझे
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