झरोखे से
शिक्षक दिवस 2012 पर राजस्थान शिक्षा विभाग से प्रकाशित काव्य संग्रह 'शब्दों की सीप ' मैं सम्मिलित मेरी कविता 'रहन '
रजनी छाबड़ा
तेरे बिना
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तेरे बिना
दिल यूं
बेक़रार रहता है
दिन उगते ही
शाम ढलने का
इंतज़ार रहता है /
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नहीं कोई
सतरंगी आँचल
सूर्य की किरणों
का है बिछौना
कहीं पर नहीं
सुकून का कोई कोना
रेत तप कर ही
बनती है सोना
पिता ऐसे होते हैं
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सिर्फ संवेदनाओं के धरातल पर ही नहीं
यथार्थ की धरती पर विचरते हैं पिता
थामे अंगुली , निज संतति की
सहजता से चलना सिखाते है
हर विपरीत स्थिति में भी
फूलों की सेज जुटाने को प्रयत्नरत
काँटों की ओर भी करते हैं इंगित
अश्क़ आँखों में जज़्ब कर
मुस्कुराने का हुनर सिखाते हैं
स्वावलम्बन का पाठ पढ़ाते है
सिर ऊंचा कर चलना सिखाते हैं/
अपने स्नेह की छतरी ताने
जीवन की कड़ी धूप से बचाते हैं
पूर्णता की चाह
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या खुदा!
थोड़ा सा अधूरा रहने दे
मेरी ज़िन्दगी का प्याला
ताकि प्रयास जारी रहे
उसे पूरा भरने का
जब प्याला भर जाता है लबालब
भय रहता है उसके
छलकने का बिखरने का
जब प्याला रहता है अधूरा
प्रयास रहता
उसमे कुछ और कतरे समेटने का
जो जूनून पूर्णता पाने के प्रयास में
है वो पूर्णता में कहाँ
लबालब प्याले में
और भरने की गुन्जायिश नही
रहती ज़िन्दगी से और कोई ख्वाहिश नहीं
पूर्णता बना देती संतुष्ट और बेखबर
पूर्णता की चाह करती प्रयास को मुखर
मुझे थोड़े से अधूरेपन में ही जीने दे
घूँट घूँट ज़िन्दगी पीने दे
सतत प्रयासशील ज़िन्दगी जीने दे