पर्यावरण
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कहाँ गए वो दिन
जब नदियाँ दायिनी थी
हवाएँ शीतल, सुगन्धित, सुवासिनी थी
सुकून दिया करती थी तन -मन को हरियाली
वन-उपवन गया करती कोयल मतवाली
बटोही सुस्ताया करते थे वृक्षों की शीतल छाँव में
खुशहाली छाई रहती थी शहर और गॉव में
अब तो प्रदूषित हुआ नदी का जल
कारखानों की चिमनियाँ धुंआ उगलती अविरल
शहरीकरण की दौड़ में कटने लगे अंधाधुंध जंगल
कोयल की कूक दबा गए, लाउड स्पीकरों के दंगल
इस से पहले की आने वाली पीढ़ी
शुद्ध वायु, शुद्ध जल , वन- उपवन के लिए तरसे
वनों के अभाव में बदली
निकल जाए बिन बरसे
हमें फिर से, जी जान से ,उचित पर्यावरण जुटाना होगा
वन सरंक्षण का व्यापक आंदोलन चलाना होगा
(
पर प्रदूषण क्या सिर्फ भौतिक स्तर पर ही है ; आज मानसिक प्रदूषण भी कुछ कम नहीं )
धर्म और सदाचार का स्थान ले चुके हैं
उग्रवाद, कट्टरवादिता और अनाचार
कहां गए वो सात्विकता , सहनशीलता , सहकारिता के भंडार
कहांगए वो दिन, जब एक दूजे के दुःख में
जान देने को हम रहते थे तैयार
निष्पक्षता का स्थान ले चुका है भ्र्ष्टाचार
मन के आवरण है चहुँ ओर अन्धकार
ऐसे भौतिक और मानसिक प्रदूषण से घिरे
हम कब तक स्वस्थ रह पाएंगे
पर परेशानी से उबारने के लिए
आसमाँ से कोई फ़रिश्ते तो न आएँगे
हमें ही जी जान से उचित पर्यावरण जुटाना होगा
सोयी हुई मानसिकता को जगाना होगा
भावी पीढ़ी को फिर से सहनशीलता, सहकारिता
सात्विकता , धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाना होगा
ज्ञान के प्रकाश से , मन पर छाया अन्धकार मिटाना होगा
भौतिक ही नहीं, मानसिक पर्यावरण में भी
समूचा बदलाव लाना होगा /
रजनी छाबड़ा
5 /6 /2005