Tuesday, February 22, 2022

अनुवाद रत्न सम्मान



 सभी मित्रों से अपनी खुशी सांझा करना चाहती हूँ/

इंडिया नेटबुक्स एवं बीपीए फाउंडेशन के द्वारा प्रायोजित वार्षिक साहित्य सम्मान के अवसर पर कालीचरण मिश्र अनुवाद रत्न  सम्मान हेतु मेरा चयन किया गया है/ यह समारोह 5 मार्च को आयोजित होगा/

इस आशय की  सूचना मुझे डॉ संजीव कुमार, प्रकाशक,  इंडिया नेटबुक्स , नोएडा से अभी अभी प्राप्त हुई /


Sunday, February 20, 2022

राजस्थानी कविताओं का हिंदी अनुवाद

 सृजन कुंज समकालीन राजस्थानी कविता केंद्रित अंक हेतु 

राजस्थानी कविताओं का हिंदी अनुवाद

मूल कवि : स्व. ओम पुरोहित कागद
अनुवादिका : रजनी छाबड़ा


प्रीत ■■■ उमर गाळ दी एक सबद नीं सीख्यो बो जिको हो प्रीत पण फेर भी आखी-आखी रात फोरतो पसवाड़ा रोवतो अर कैंवतो काळजै रड़कै प्रीत ठाह नीं किंया सीख्यो !

जीवन बिता दिया सारा
एक शब्द नहीं सीख पाया
जिसे कहते हैं प्रेम
पर फिर भी
पूरी पूरी रात
बीतती है
करवटें बदलते
सुबकता हूँ
सिसकता हूँ
और कहता हूँ
मेरे दिल में
उठती है हुक
अनजाने ही
कैसे सीख गया मैं
प्रीत


प्रीत री देवळ्यां
■■■■■■■■ प्रीत तो थारै सूं ही मोरचै पण पेट सारू हो छेकड़ मोरचो जीत्यो पेट हारया हारी प्रीत ई पण होयगी अमर अब गाईजसी करोड़-करोड़ मुंडां सावळ देख अदेही आपणी रूह में है प्रीत री देवळ्यां !

प्रीत का देवालय
**************
प्यार तो बेशक
तुमसे ही करता था
पर प्रमुखता थी
रोज़ी रोटी कमाना
पेट की भूख
रही हावी
प्यार हुआ धराशायी

हार कर भी जीतेगी प्रीत
हो जाएगी अमर
करोड़ों स्वर मुखर हो जायँगे
गाएंगे प्रीत के गीत
अदृश्य दिखाई देगा
देखेंगे सभी
हमारी आत्मा में बसा.
प्रीत का देवालय
थांरी आंख्यां में म्हारा सुपना
■■■■■■■■■■■■■■■
आपां साथै-साथै चाल्या
साथै ई देखी जगती
इकसार देख्या जग रा चाळा
मन तो पण दोय हा
थूं कीं न्यारो सोच्यो होसी म्हांसूं
थूं पूछती रैई म्हारा सुख-दुःख
म्हनै तो फुरसत ई नीं ही
म्हारा सुपना पूरण सूं
म्हैं तो बधा ई लियो म्हारो बंस
थूं बैठी है आज मून
अंतस में लियां अंधारो
थांरी आंख्यां रा काच पड़ग्या मांदा
थांरै सुपना रो पछै काईं होयो
आव म्हैं सोधू थांरी आंख्या में
थांरा अणपाक्या सुपना
पण ओ काईं !
थांरी आंख्यां में भी
म्हारा ई सुपना !

तुम्हारी आँखों में बसे मेरे सपने 
*******************************
हम संग संग चले 
साथ साथ ही देखी यह दुनिया 
और देखी दुनिया की चालें 
पर हम दोनों के दिमाग तो 
भिन्न हैं एक दूजे से 
स्वाभाविक ही है 
सोचने का अंदाज़ भी भिन्न 
तुम पूछती ही रही 
मेरा कुशल-क्षेम 
और मुझे तो 
कभी फुरसत ही न रही 
जुटा रहा अपनी धुन में 
अपने सपनों 
को सच करने  में 
मैंने तो पनपा  ही लिया 
मेरा वंश 

तुम आज मौन हो 
अँधेरे को अंतस में समेटे 
तुम्हारी दृष्टि भी 
धुंधलाने लगी अब 
तुम्हारे सपनों का क्या हुआ 
मुझे तलाशने तो दो 
तुम्हारी आँखों में 
तुम्हारे अधूरे सपने 
पर यह क्या ? 
विस्मित हूँ 
देख कर तुम्हारी 
आँखों में  रचा -बसा 
मेरा ही सपना !




भटके राही

 


भटके  राही 

******** 

भटके राही 

राह पूछ लिया करते थे 

 राह चलते 

अजनबी लोगो से 

और वे भी ख़ुशी ख़ुशी 

वक्त निकाल लेते थे 

राह दिखाने को 



अब कोई किसी का 

पथदर्शक नहीं बनता 

न कोई पूछता है 

न कोई बताता है 

सब का अब 

ख़ुद से ही नाता है 


किसी भी अनजान राह पर 

अनजान शहर में भटक जाएँ

गुम हो जाने का नहीं डर 

गूगल मैप सब का रखवाला 

भटकों को राह दिखाने वाला 




Saturday, February 19, 2022

जड़ों से नाता


 जड़ों से नाता 
************

बस्ती में रह कर भी 

लगता वीराना है 

मन में अभी भी 

गाँवों की यादों का 

आशियाना है 


सन सन बहती 

ठंडी हवा  

अमराइयों में

कोयल की कूक 

नदिया का 

स्वच्छ , शीतल जल 

बहता कलकल 

याद कर के 

मन होता आकुल 


चूल्हे की 

सौंधी आंच पर  

राँधी गयी दाल 

अंगारो पर सिकी 

फूली -फूली रोटियां 

बेमिसाल 

नथुनों तक पहुँचती खुशुबू 

भड़का देती थी भूख 


शहरी ज़िंदगी की 

उलझनों में व्यस्त 

दिन भर की थकान से पस्त 

दो कौर खाना हलक से 

नीचे उतारने से पहले 

कई बार ज़रूरत रहती है 

एपीटाईज़र की 


बच्चे खाना खाते हैं 

टी वी में आँखें गढ़ाए 

उन्हें परी देश की कहानियां 

अब कौन सुनाये 


ए सी और कूलर की हवा 

नहीं है प्राकृतिक हवा की सानी 

खुली छत पर सोना मुमकिन नहीं 

नहीं देख पाते अब 

तारों की आँख मिचौली 

चँदा की रवानी 


बढ़िया होटल में 

खाना आर्डर करते हुए 

अब भी तुम मंगवाते हो

धुआंदार 'सिज़लर '

तंदूरी रोटी 

मक्खनी दाल 

दाल -बाटी चूरमा 

मक्की की रोटी 

सरसों का साग 

मक्खन , छाछ 

धुंए वाला रायता 

याद है तुम्हे अभी भी 

इन का ज़ायका  



रोज़ी रोटी की जुगाड़ में 

कहीं भी बसर करे हम 

नहीं टूट सकता जड़ों से नाता 


Friday, February 18, 2022

बोतलबंद पानी


 बोतलबंद पानी 

 ************

निर्मल, शीतल जल की वाहिनी 

हुआ करती थी नदियाँ 

उस जल की मिठास 

भुलाये नहीं भूलती 


राहगीरों के लिए 

प्याऊ लगाए जाते थे 

नहीं मिलता अब 

स्नेह पगा गुड़ धानी 

और बेमोल पानी 


बदले परिवेश 

आ गया है 

बोतलबंद पानी 

मोल दो और पी लो 

नए दौर की 

यही कहानी


पिता ऐसे होते हैं.


 

पिता ऐसे होते हैं

************

स्वछन्द विचरते हो 

जब तुम पतंग सरीखे 

सपनों के खुले आकाश में 

पिता थामे रखते हैं डोर 


तुम्हारी  हर सफलता पर 

उनकी खुशी का 

नहीं रहता कोई छोर 

हो जाते हैं पुलकित, विभोर 


भूल हो जाये तुम से अगर 

सुधारने को रहते तत्पर 

तराशी गई  ईमारत तुम 

पिता नींव  का पत्थर 


रजनी छाबड़ा 

बहु-भाषीय कवयित्री व् अनुवादिका 

Thursday, February 17, 2022


रहन 
****
करबद्ध
सर
झुकाए
सिकुचा ,सिमटा सा
खड़ा था वह 
 झरोखे से
विकीर्णित
होती
किरणों के पास
अपनी कलाकृति के आगे

कैनवास दर्शा रहा था
क्षितिज छूने की आस में 
उन्मुक्त उड़ान
भरते विहग
और सामने पर कटे
पाखी सा
घायल
एहसास लिए
वह  कलाकार

रहन 
रख चुका था
अपनी अनुभूतियाँ
कल्पनाएँ
संवेदनाएं
अपनी कला के
सरंक्षक को

 शिक्षक दिवस 2012 पर राजस्थान शिक्षा विभाग से प्रकाशित काव्य संग्रह  'शब्दों की सीप ' मैं सम्मिलित मेरी कविता 'रहन '

रजनी छाबड़ा

रेत के समन्दर से


रेत  के समन्दर से 

ज़िन्दगी
रेत का समन्दर 
शोख सुनहली
रूपहली
रेत सा भरा 
आमंत्रित करता सा
प्रतीत होता है

एक अंजुरी ज़िन्दगी
पा लेने की
हसरत लिए
प्रयास करती हूँ
रेत को अंजुरी में 
समेटने का
फिसलती सी लगती है
ज़िन्दगी

क्षणिक
हताश हो
खोल देती हूँ
जब अंजुरी  
झलक जाता है
हथेली के बीचों बीच
एक इकलौता
रेत का कण

जो फिसल
गए
वो ज़िन्दगी के पल
कभी मेरे
थे ही नहीं
मेरी ज़िन्दगी का
पल
तो
वो है
जो जुड़ गया
मेरी हथेली के बीचों बीच
एक इकलौता
रेत का कण
बन के


रजनी छाबड़ा
From Ocean of Sand
===============
Life
an ocean of sand
full of silvery
Golden sand
Seems to be inviting

Longing to hold
A fistful of life
I try to hold sand
In my hands

Life seems to be
Slipping from my hands
Momentarily
Getting desperate
I open my fist

Suddenly, I visualize
A particle of sand
Stuck in midst of my palm

The moments that
slipped from my life
were never mine

Moment of my life is
The sole particle of sand
That still remains
United with me
Glittering
Stuck in midst of my palm

















तेरे बिना

 तेरे बिना 

*******

तेरे बिना 

दिल यूं 

बेक़रार रहता है 

दिन उगते ही 

शाम ढलने का 

इंतज़ार रहता है /

तपती रेत


 तपती रेत 

********


नहीं कोई 

सतरंगी  आँचल 


सूर्य की किरणों 

 का है बिछौना 


कहीं पर नहीं 

सुकून का कोई कोना 


रेत तप कर ही 

बनती है सोना 

पिता ऐसे होते हैं


 

पिता ऐसे होते हैं 

*************

सिर्फ संवेदनाओं के धरातल पर ही नहीं 

यथार्थ की धरती पर विचरते हैं पिता 


थामे अंगुली , निज संतति की 

सहजता से चलना सिखाते है 

हर विपरीत स्थिति में भी 


फूलों की सेज जुटाने को प्रयत्नरत 

काँटों की ओर भी करते हैं इंगित 


अश्क़ आँखों में जज़्ब कर 

मुस्कुराने का हुनर सिखाते हैं

 

स्वावलम्बन का पाठ पढ़ाते है 

सिर ऊंचा कर चलना सिखाते हैं/


अपने स्नेह की छतरी ताने 

जीवन की कड़ी धूप से बचाते हैं 



 

पूर्णता की चाह 

**********

या खुदा! 

थोड़ा सा अधूरा रहने दे 

मेरी ज़िन्दगी का प्याला

 ताकि प्रयास जारी रहे

 उसे पूरा भरने का 

जब प्याला भर जाता है लबालब 

भय रहता है उसके 

छलकने का बिखरने का

 जब प्याला रहता है अधूरा 

प्रयास रहता 

उसमे कुछ और कतरे समेटने का

 जो जूनून पूर्णता पाने के प्रयास में 

है वो पूर्णता में  कहाँ 

लबालब प्याले में

 और भरने की गुन्जायिश नही 

रहती ज़िन्दगी से और कोई ख्वाहिश नहीं 

पूर्णता बना देती संतुष्ट और बेखबर

 पूर्णता की चाह करती प्रयास को मुखर

 मुझे थोड़े से अधूरेपन में ही जीने दे

 घूँट घूँट ज़िन्दगी पीने दे 

सतत प्रयासशील ज़िन्दगी जीने दे

Wednesday, February 16, 2022

बात सिर्फ इतनी सी


बात सिर्फ इतनी सी                                                                                       

बगिया की                                                         
शुष्क घास पर
तनहा बैठी वह
और सामने
आँखों मैं तैरते
फूलों से नाज़ुक
किल्कारते बच्चे

बगिया का वीरान कोना
अजनबी का
वहाँ से गुजरना
आंखों का चार होना

संस्कारों की जकड़न 
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पहराबंद
उनमुक्त धड़कन
अचकचाए
शब्द
झुकी पलकें
जुबान खामोश
रह गया कुछ
अनसुना,अनकहा

लम्हा वो बीत गया
जीवन यूँ ही रीत गया

जान के भी
अनजान बन
कुछ
बिछुडे ऐसा
न मिल पाये
कभी फिर
जंगल की
दो शाखों सा

आहत मन की बात
सिर्फ इतनी
तुमने पहले क्यों
न कहा

वह  आदिकाल
से अकेली
वो अनंत काल
से उदास
और सामने
फूलों से नाज़ुक बच्चे
खेलते रहे


@रजनी छाबड़ा