जड़ों से नाता
लगता वीराना है
मन में अभी भी
गाँवों की यादों का
आशियाना है
सन सन बहती
ठंडी हवा
अमराइयों में
कोयल की कूक
नदिया का
स्वच्छ , शीतल जल
बहता कलकल
याद कर के
मन होता आकुल
चूल्हे की
सौंधी आंच पर
राँधी गयी दाल
अंगारो पर सिकी
फूली -फूली रोटियां
बेमिसाल
नथुनों तक पहुँचती खुशुबू
भड़का देती थी भूख
शहरी ज़िंदगी की
उलझनों में व्यस्त
दिन भर की थकान से पस्त
दो कौर खाना हलक से
नीचे उतारने से पहले
कई बार ज़रूरत रहती है
एपीटाईज़र की
बच्चे खाना खाते हैं
टी वी में आँखें गढ़ाए
उन्हें परी देश की कहानियां
अब कौन सुनाये
ए सी और कूलर की हवा
नहीं है प्राकृतिक हवा की सानी
खुली छत पर सोना मुमकिन नहीं
नहीं देख पाते अब
तारों की आँख मिचौली
चँदा की रवानी
बढ़िया होटल में
खाना आर्डर करते हुए
अब भी तुम मंगवाते हो
धुआंदार 'सिज़लर '
तंदूरी रोटी
मक्खनी दाल
दाल -बाटी चूरमा
मक्की की रोटी
सरसों का साग
मक्खन , छाछ
धुंए वाला रायता
याद है तुम्हे अभी भी
इन का ज़ायका
रोज़ी रोटी की जुगाड़ में
कहीं भी बसर करे हम
नहीं टूट सकता जड़ों से नाता
अदृभुत ... नहीं टूट सकता जड़ों से नाता...
ReplyDeleteThanks, Abhay ji for your visit and very apt comment
ReplyDeleteGreat and true.
ReplyDeleteThanks for your precious comment
ReplyDeleteमेहनाज दायमा
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना 👌👌🏻👌🏻
Shukriya, Mehnaz
DeleteBilkul sahi steek vishleshan, shehri zindagi ki apathapi me bhi apne bachpan ki gaon me gujari yaaden bhoolti nhi Hain. Iss ko sach me kehte hain apni zado se zuda maata. Khubsoorat matching graphics to sentiments in poem from creative. Rajni. Chhabra ji
ReplyDeleteThanks for very apt comment by you Mallik Ji. Mental association with native land is the strongest bond in our lives.
ReplyDelete