अधूरी क़शिश
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हवा के झोंके सा
बंजारा मन
संदली बयार
सावनी फ़ुहार
क़ुदरत पे निखार
भावनाओं केअंबार
पतंग सरीखा मन
क्षितिज छूने की
तड़पन
और धरा की
जुम्बिश
रह गयी
अधूरी क़शिश
रजनी
27/2/2009
कैसा गिला ?
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सुर्ख, उनीदीं आँखें
पिछली रात की करवटें
रतजगा
न ख़त्म
होने वाला सिलसिला
विरहन का यही
अमावसी नसीब
किस से शिकवा
कैसा गिला?
रजनी छाबड़ा
8 /5/2004
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आँखों से आंखों में
समाहित होने का सफर
कहीं कट जाता
एक पल में
कभी अधूरा रहता
युग युगान्तर
रजनी छाबड़ा
1 /5 /2004