Saturday, August 8, 2009

मन विहग

आकुल निगाहें
बेकल राहें
विलुप्त होता
अंनुपथ
क्षितिज
छूने की आस
अतृप्त प्यास
तपती मरुधरामैं सावनी
बयार
नेह मेह
का बरसना
ज़िन्दगी का सरसना
भ्रामक स्वप्न
खुली आँख का
छल
मन विहग के
पर कतरना
यही
यथार्थ का धरातल







































कैसा गिला

सुर्ख उनीदीं ऑंखें
पिछली रात की
करवटें
रतजगा
न ख़तम होने वाला
सिलसिला
विरहन का
यही
अमावसी
नसीब
किस से
शिकवा
कैसा
गिला







झरोखे से

मन के बंद
अंधेरे कमरे में
तेरी यादों के झरोखे से
जब धूप छनी किरणे
आती हैं
दो पल को ही सही
अंधेरे में उजाले का
भरम जगा जाती हैं


रजनी छाबड़ा 

संदली एहसास

फिजाओं मैं
फैली हुई
पनीली हवाओं से तुम
नज़र नही आते
बयार से
नेह बरसाते
धेरती का दामन
नही छु पाते
अनछुए
स्पर्ष से
तुम अपने होने का
संदली एहसास
दिला जाते




कैसा विचलन

विस्तृत
धेरा
का
हर एक कोना
कभी न कभी
प्रस्फुटित
होना
कंटीली राहों पे
कैसा विचलन
सुनते हैं है
काँटों मैं भी है
फूल खिलने का चलन