Monday, February 1, 2016

यह कैसा सिलसिला



  • यह कैसा सिलसिला

  • कभी कभी दो कतरे नेह के 
  • दे जाते हैं सागर सा एहसास 

  • कभी कभी  सागर भी 
  • प्यास बुझा नहीं पाता 


       जाने प्यास का यह कैसा है 

       सिलसिला और नाता 


       रजनी छाबड़ा 

स्त्री मन को शब्द देती कविताएं : होने से न होने तक

अयन प्रकाशन, दिल्ली द्वारा मेरे सद्य प्रकाशित प्रथम हिंदी काव्य संग्रह 'होने से न होने'तक की गहन समीक्षा के लिए प्रतिष्ठित कवि व् आलोचक ओम पुरोहित कागद जी का आभार
स्त्री मन को शब्द देती कविताएं : होने से न होने तक
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■ओम पुरोहित कागद
विराट से प्राप्त अनुभवों को अपने परिवेश के साथ गूंथता हुआ एक कवि उन्हें कविता का रूप देता है जिस में वह समष्टि को अपने "मैं" के माध्यम तक से कहने में भी पीछे नहीं हटता । इस उपक्रम में वह होने से न होने तक को प्रकट करने की कौशिस करता है । इस पर भी विश्वास और गहरा होने लगता है जब एक कवयित्री अपने अनुभव संसार को शब्द देती है । कवि अपने स्व और अपनी निजता को शब्द देने में लाचार होता दिखता है तो वहीं स्त्रियां अतिसूक्ष्म संवेदनाओं को उकेरने में ईमानदार नजर आती हैं । लेखनी जब पुरुष के हाथ में होती है तो स्त्री-पुरुष के बीच के भेदभावों से सम्बद्ध बहुत से पहलू बहुधा छूट जाते हैं मगर उन्हीं पहलुओं पर कवयित्रियाँ बेबाकी से लिख जाती हैं । स्त्री के सुख-दुःख और सपने पुरुष से इतर होते हैं तो उनके लिए उपक्रम व परिणाम भी भिन्न होते हैं । पुरुष की मुखरता स्त्री के सम्पूर्ण सम्वेदन को व्यक्त करने में सक्षम नहीं कही जा सकती ।
उपर्युक्त विचार हिंदी एवम् अंग्रेजी की कवयित्री रजनी छाबड़ा की सद्य प्रकाशित काव्यकृति "होने से न होने तक " को पढ़ने के बाद स्पष्ट रूप से सामने आता है । इस कविता संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि स्त्रियां अपनी निजता में एक विशेष प्रकार की घुटन में जीती हैं । एक स्त्री के जीवन में बहुत कुछ ऐसा होता है जिसे वह सामाजिक एवम् पारिवारिक अदृश्य दबाव के चलते चाह कर भी व्यक्त नहीं कर पाती । इस बात को रजनी छाबड़ा अपनी कविता "हम जिंदगी से क्या चाहते हैं " की इन पंक्तियों में दबी जुबान में यूं कह जाती हैं -
उभरती है जब मन में
लीक से हट कर ,
कुछ कर गुजरने की चाह
संस्कारों की लोरी दे कर
उस चाहत को सुलाए जाते हैं । ( पृष्ठ 13)
*
कुछ कर गुजरने की चाहत
कुछ न कर पाने की कसक
अजीब कशमश में
जिंदगी जिए जाते हैं । (पृष्ठ 14)
कवयित्री रजनी छाबड़ा स्त्री मन के सूनेपन को शब्द देती हैं तो उसे जीवन को अपने तरीके से जीने का सन्देश भी देती हैं । यहां कवयित्री की व्याकुलता , विवशता , अनुभूतियों के चित्रण व छटपटाहट निजी न हो कर सम्पूर्ण वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं । इस व्यथा को शब्द देते हुए रजनी छाबड़ा कहती हैं-
जुबां मैं भी रखती हूं
मगर खामोश हूं
क्या दूं
दुनिया के
सवालों के जवाब
जिंदगी जब खुद
एक सवाल
बन कर रह गई । ( पृष्ठ 75 )
*
रह रह कर मन में
इक कसक सी उभर आए
काश !इक मुट्ठी आसमान
मेरा भी होता । (पृष्ठ 81)
रजनी छाबड़ा की कविताओं में संवेदनाएं व्यापक हैं मगर उन संवेदनाओं को व्यक्त करने के लिए उनके पास अपना मुहावरा और अपनी भाषा है । बहुत बड़ी बात को वे बहुत सरल तरीके से कह जाती हैं । उनका अनुभव संसार इतना विराट है कि किसी विशिष्ट भाषा की दरकार ही अनुभव नहीं होती । रजनी छाबड़ा की इन सहज सरल कविताओं का साहित्य जगत में स्वागत होगा ।

पुस्तक : होने से न होने तक
लेखिका : रजनी छाबड़ा
विधा : कविता
मूल्य : 200 रुपये
संस्करण : 2016
प्रकाशक : अयन प्रकाशन
1/20 ,महरोली , नई दिल्ली-110030