Friday, May 1, 2020

बाल श्रमिक 


वह जा रहा है ,बाल श्रमिक 
अधनंगे बदन पर, लू के थपेड़े सहते
तपती सुलगती दुपहरी में
सिर पर उठाये, ईंटों से भरी तगारी

सिर्फ तगारी का बोझ नहीं 
मृत आकांक्षाओं की अर्थी
निज कन्धों पर उठाये
नन्हे श्रमिक के थके थके
बोझिल कदम डगमगाए
तन मन की व्यथा किसे सुनाये

याद आ रहा है उसे
माँ जब मजदूरी पर निकलती और 
रखती अपने सिर पर
ईंटों से भरी तगारी
साथ ही रख देती
दो ईंटें उसके सिर पर भी
जिन हालात में खुद जी रही थी
ढाल दिया उसी में  बालक को भी

माँ के पथ का 
बालक नित करता अनुकरण
लीक पर चलते चलते 
खो गया कहीं मासूम बचपन
शिक्षा की डगर पर
चलने का अवसर 
मिला ही नहीं कभी
उसे तो विरासत में मिली
अशिक्षा की यही कंटीली राह

आज यही राह 
ले चली उसे
अशिक्षा सने 
अँधेरे भविष्य की ओर 
खुशहाल ज़िन्दगी की भोर
होती जा रही कोसों दूर

काश! वह, रोजी रोटी की फ़िक्र के
दायरे  से निकल पाए
थोडा वक़्त खुद के लिए बचाए
जिसमे पढ़ लिख कर 
संवार ले बाक़ी की उम्र

बचपन के मरने का जो दुःख 
उसने झेला
आने वाले वक़्त में 
वह कहानी ,
उसकी संतान न दोहराए
पढ़ने की उम्र में श्रमिक न बने
कंधे पर बस्ता उठाये
शान से पाठशाला जाये.

रजनी छाबड़ा 


Just care to see
That child labour
half clad
Bearing heat wave
in sun scorched noon
carrying on his head
crate full of bricks

not only crate  full of bricks,
also carrying burden of
dead aspirations on his head
tired steps of that frail labourer
are stumbling.
with whom can he share his agony?

he recalls
when his mother went for labour
taking him along
and carried crate of bricks
on her head
used  to put two bricks
on his head as well
thus made him accustomed
to way of life that she was leading

Child kept on following mother