Friday, December 2, 2011

GHAR AUR MAKAAN

घर और मकान


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जिस शहर मैं 
मेरा घर
मेरा आब-ओ-दाना 
वही मेरे लिए 
ज़न्नत सा 
आशियाना 

जिस शहर मैं
मेरा मकान
और जीने का सामान
वहाँ सबब ज़िंदगी का
पर तन्हाई का ठिकाना


रजनी छाबड़ा 

Monday, August 8, 2011

SOUNDHEE HAWAIYEN


अब के बरस

यूं बरसा पानी

धरती की चुनर

हुई धानी



सौंधी हवाएँ

गुनगुनाने लगी

धरती और

गगन के

मिलन की कहानी





Saturday, July 30, 2011

यह कैसा सावन

यह कैसा सावन




सावन के झूलों के संग

हिलोरे लेती मैं और

मेरी सतरंगी चुनर के रंग

कहाँ खो गए



अबके क्यों बर्फ सी

जमी हैं सावन में 



एहसास भी बर्फ सी

सफ़ेद चादर ओढ़े

सो गए

Thursday, July 28, 2011

UNMUKT


झरनों की कलकल 
पाखियों का कलरव
उन्मुक्त उडान
संदली बयार
सावनी फुहार

यही तुम्हारी 
हँसीं की पहचान

मोतियों वाले घर का
दरवाज़ा खोल दो
ओढी हुई मुस्कान 
छोड़ दो 

Friday, April 29, 2011

BAL SHRMIK

वह जा रहा है,बाल श्रमिक
अधनंगे बदन पर ,लू के थपेड़े सहते
तपती सुलगती दुपहरी मैं
सिर पर उठाये ,ईंटों से भरी तगारी

सिर्फ तगारी का बोझ नहीं 
मृत आकांक्षाओं की अर्थी
निज कन्धों पर उठाये
नन्हे श्रमिक के थके थके
बोझिल कदम डगमगाए
तन मन की व्यथा किसे सुनाये

याद  आ रहा है उसे
माँ जब मजदूरी पर निकलती और 
रखती अपने सिर पर
ईंटों से भरी तगारी
साथ ही रख देती
दो ईंटें उसके सिर पर भी
जिन हालात मैं खुद जी रही थी
ढाल दिया उसी मैं बालक को भी

माँ के पथ का 
बालक नित करता अनुकरण
लीक पर चलते चालते 
खो गया कहीं मासूम बचपन
शिक्षा की डगर पर
चलने का अवसर 
मिला ही नहीं कभी
उसे तो विरासत मैं  मिली
अशिक्षा की यही कंटीली राह

आज यही राह 
ले चली उसे
अशिक्षा सने 
अँधेरे भविष्य की ओर 
खुशहाल ज़िन्दगी की भोर
होती जा रही कोसों दूर

काश! वह,रोजी रोटी की फ़िक्र के
दायरे  से निकल पाए
थोडा वक़्त खुद के लिए बचाए
जिसमे पड़ लिख कर 
संवार ले बाक़ी की उम्र

बचपन के मरने का जो दुःख 
उसने झेला
आने वाले वक़्त मैं
वह कहानी ,
उसकी संतान न दोहराए
पड़ने की उम्र मैं श्रमिक न बने
कंधे पर बस्ता उठाये
शान से पाठशाला जाये.

रजनी छाबड़ा 




Tuesday, April 26, 2011

SAPNE HASEEN KYON HOTE HAIN

सपने हसीन क्यों होते हैं
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स्नेह, दुलार, प्रीत
 मिलन,समर्पण
आस, विश्वास  के 
सतरंगी 
ताने बाने से बुने
सपने इस कदर   
हसीन  क्यों होते हैं

कभी मिल जाते हैं 
नींद को पंख
कभी आ जाती है
पंखों को नींद
हम सोते में जागते
ओर जागते में सोते हैं
सपने इस  कदर  
हसीन क्यों होते हैं

बे नूर आँखों में  
नूर जगाते
उदास लबों पर 
मुस्कान खिलाते
मायूस सी ज़िंदगी को
ज़िंदगी का साज सुनाते
सपने इस कदर
 हसीन क्यों होते है

कल्पना के पंख पसारे
जी लेते हैं कुछ पल
इनके सहारे
अँधेरे के आखिरी छोर पर
कौंधती बिजली से यह सपने
इस कदर हसीन 
क्यों होते हैं

जिस पल मेरे सपनों पर
लग जायेगा पूर्ण विराम
मेरी ज़िंदगी के चरखे को भी
मिल जायेगा अनंत  विश्राम


रजनी 


Friday, April 22, 2011

मैं कोई मसीहा नहीं

 मैं कोई मसीहा नहीं

 मैं कोई मसीहा नहीं
जो चढ़ सकूं 
सलीब पर
हँसते हँसते 
एक  अदना इंसान हूँ मैं
मुन्तजिर हूँ मैं 
मेरे दर्द के
 मसीहा की/


रजनी छाबड़ा

Thursday, March 24, 2011

KHEL

खेल खेले जाते है
विश्व भर मै.लिए सद्भावना
 और सहकारिता का आधार
जीवन भी तो खेल है,
आईए इस पर करें विचार

शबनमी धुप पाने से पहले
गुजरना पड़ता है
सर्द हवाओं के दौर से
जीत हासिल करने से पहले
गुजरना पड़ता है
कठिन श्रम के दौर से

हारे गर आज तो 
जीतेंगे कल 
यही विचार 
बढाए रखता है मनोबल
लिए श्रम ओर विश्वास का सम्बल
हार जाओ तो भी रहो अविचल.

सेकड़ों प्रयास से 
सफलता,चींटी को मिली
ग्रहण लगने से कभी,
छवि सूरज कि न घटी
नितन्तर प्रयास से तू
,खुद को इतना सबल बना ले
विजयश्री खुद  आकर,
तुझे गले लगा ले


  

Monday, March 21, 2011

माँ को समर्पित

 माँ को समर्पित 
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ज़िन्दगी और
मौत के बीच जूझती
 जिंदगी  से लाचार 
सी पड़ी थी तुम

मन ही मन तब चाहा था मैंने
कि आज तक तुम मेरी माँ थी
आज मेरी बेटी बन जाओ
अपने आँचल की छाँव में 
लेकर, करूं तुम्हारा दुलार
अनगिनत
 दुआएं खुदा से कर
मांगी थी तुम्हारी जान की खैर

बरसों तुमने मुझे
पाला पोसा और संवारा
सुख सुविधा ने
जब कभी भी किया
मुझ से किनारा
रातों के नींद
दिन का चैन
सभी कुछ मुझ पे वारा
मेरी आँखों में  गर कभी
दो आँसू भी उभरे
अपने स्नेहिल आँचल में 
सोख लिए तुमने

एक अंकुर थी मैं
स्नेह, ममता
से सींच कर मुझे
छायादार तरु
बनाया 
ज़िंदगी भर
 मेरा मनोबल
बढाया
हर विषम परिस्थिति में 
 मुझे  समझाया
वह बेल कभी न बनना  तुम
जो परवान चढ़े
दूसरों के सहारे
अपना सहारा ख़ुद बन
बढा सको उन्हें
जो हैं तुम्हारे सहारे

पर  तुम्हे सहारा देने की तमन्ना
दिल में ही रह गयी
तुम ,हाँ, तुम, जिसने सारा जीवन
सार्थकता से बिताया था
कभी किसी
के आगे
सर न झुकाया था
जिस शान से जी थी
उसी शान से दुनिया छोड़ चली

हाँ, मैं ही भूल गयी थी
उन्हें बैसाखियों के सहारे चलना
कभी नही होता गवारा
जो हर हाल में 
देते रहे हो
औरों को सहारा/
 
रजनी छाबड़ा



Tuesday, January 25, 2011

तिरंगे से गौरान्वित है
हर भारतवासी का भाल
रहें जब तक चाँद,सितारे
यह गौरव रहे कायम बेमिसाल