Tuesday, August 25, 2009

वो आईना न रहा

उभरता था

जिसमे

ज़िन्दगी का अक्स

वो आईना न रहा

वही हैं मंजिलें

वही हैं मूकाम

मंजिल

मूकाम का

वो मायना न रहा

रेत के समंदर से

ज़िन्दगी
रेत का  समंदर
शोख सुनहली
रूपहली
रेत सा भेरा
आमंत्रित करता सा
प्रतीत होता है
एक अंजुरी ज़िन्दगी
 पा लेने की हसरत
लिए
प्रयास करती हूँ
रेत को अंजुरी मैं
समेटने का
फिसलती सी लगती है
ज़िन्दगी

क्षणिक
हताश हो
खोल देती हूँ
जब अंजुरी
झलक जाता है
हथेली के बीचों बीच
एक इकलौता
रेत का कण
जो फिसल 
गए
वो ज़िन्दगी के पल
कभी मेरे
थे
ही नहीं

मेरी ज़िन्दगी का
पल

तो
वो है
जो जुड़ गया
मेरी हथेली के बीचों बीच
एक इकलौता
रेत का कण
बन के









साथ

उमर भर
का साथ
निभ जाता
कभी एक ही
पल मैं
बुलबुले मैं
उभरने वाले
अक्स की उमर
होती है
फक्त एक ही
पल की