Friday, October 30, 2009

TUMHI BATAO NA

तुम्ही बताओ ना
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मेरी नींद को पंख लगे जब
क्या तुम्हारी भी संग
उड़ा  ले गयी

या फिर अधजगी रातों  में
तारे गिनने की रस्म
मैं इकतरफा निभा गयी




Thursday, October 29, 2009

ज़िन्दगी एक ग़ज़ल थी

ज़िन्दगी एक ग़ज़ल थी
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ज़िन्दगी एक ग़ज़ल थी
अब अफसाना बन गयी
नियामत थी साथ तेरे
बाद तेरे सांस लेने का
बहाना बन गयी


रजनी छाबड़ा 

Wednesday, October 28, 2009

AAS KA PANCHI

आस का पंछी
मन इक् आस का पंछी
मत क़ैद करो इसे
क़ैद होंने के लिए
क्यां इंसान के
तन कम हैं

Monday, October 26, 2009

lahren

लहरें

सांझ का धुधलका सघन
सागर की लहरें और 
हिचकोले खाता तन मन
संग तुम्हारे महसूस किया मन ने
सागर में सागर सा विस्तार
असीम खुशियाँ, भरपूर प्यार

वक़्त के बेरहम सफ़र में तुम
ज़िन्दगी की सरहद के उस पार
सांझ के तारे में
करती हूँ तुम्हारा दीदार

सागर आज भी वही है
वही सांझ का धुंधलका सघन
हलचल नहीं है लहरों में
सतह लगती है शांत
ठहरा सागर, गहरा मन
रवान है अशांत मन के
विचारों का मंथन

अध्यापक दिवस प्रकाशन २००९,राजस्थान शिक्षा विभाग के काव्य संग्रह 'कविता कानन' में प्रकशित मेरी रचना
रजनी

Saturday, October 17, 2009

जाने कब

बेखुदी
के आलम मैं
ख़ुद को
यूँ पुकारती हूँ
जैसे तुम
बुला रहे हो मुझे
जाने कब उतरेगा
यह जूनून मेरा
कब आएगा
होश मुझे

Friday, October 16, 2009

सौहार्द की दिवाली

मेरा भारत महान
धरती के सीने पर सजे
विविधताओं के थाल समान
समेटे हर मजहब,जात पात
सम्प्रदाय ,संस्कृति और भाषा
मन मैं बस रही
बस एक ही अभिलाषा
हिंदू,मुस्लिम,सिख ,ईसाई
समझें एक दूसरे को भाई भाई
सब धेर्मों और संस्कृति का लेकर सार
करें इस देश की सार संम्भाल
सभी कर ले मन मैं एक विचार
दिवाली बने सौहार्द का त्यौहार
सब धरम दिए समान
आलोकित करें देश का आँगन
धर्म निरपेक्षता का तेल
मन दिए मैं
बनाये संबंधों को प्रगाढ़
दे कर प्यार का
उपहार

इस अंदाज़
से मने दिवाली का त्यौहार
मन मैं कोई दुर्भाव
न हो
जात धरम
का विचार न हो
बंध कर एकता के सूत्र मैं
जगमगाए यह देश महान

Thursday, October 15, 2009

अकाल

अब के बरस
यह कैसी दिवाली
मन रीता ,आँगन रीता
चहुँ ओर वीराना
खेत खलिहान
सब खाली खाली

अकाल ग्रसित गाँव
शहर के उजियारे के करीब
सिसक सिसक कर,
बयान कर रहे
उनके अन्धियारे
अपना नसीब

तुन भी उनकी रोशनी का
बन सकते हो सबब
गर इस दिवाली
अपने आँगन मैं
दो चार दीप
जला लो कम

नहीं छेड़ते उनके नौनिहाल
फुलझडी,पटाखे
मिठाई का राग
पर,उनके चूल्हे मैं भी
हो कुछ आग 
उनके आँगन मैं भी हो
दो चार रोशन चिराग़ 



















चिराग

तम्मनाओं की लौ से
रोशन किया
एक चिराग
तेरे नाम का
लाखों चिराग
तेरी यादों के
ख़ुद बखुद
झिलमिला उठे

Tuesday, October 13, 2009

अपनी किस्मत का तारा

जो सागर की इक् इक् लहर
गिन गिन कर बढ़ें
वो क्या उतरेंगे
तूफानी सैलाब मैं
खड़े रह कर सागर किनारे
थामे किसी चट्टान को
जो जूझना चाहेंगे
हर तूफान से
वो क्या हासिल करेंगे
ज़िन्दगी मैं
ज़िन्दगी के सागर मैं
गहरे डूब कर ही
किनारा मिलता है
तुफानो से जूझ कर
अपनी किस्मत का
तारा मिलता है

काफी हैं

एक खवाब
बेनूर आँख के लिए
एक आह
खामोश लब के लिए
एक पैबंद
चाक जिगर
सीने के लिए

काफी हैं
इतने सामान
मेरे
जीने
के लिए

Monday, October 12, 2009

धुंध

उदासियों की परत दर परत
धुंध नहीं
जो छंट जायेगी
इस कदर मन मैं
गहरी पैन्ठी हैं
अब इस जान के
साथ ही जायेगी

Friday, October 9, 2009

कसक

अधूरेपन की कसक
यूँ,ज़िंदगी मैं
घुल रही
स्याह रातों की
घनी स्याही
आसुओं से भी
नही धुल रही

Thursday, October 8, 2009

कल,आज और कल

आने वाला कल
कभी नहीं आता
क्योंकि कल
आते ही ,है
आज बन जता
फिर क्यों न हम
आज के पल पल को
सहेजे,समेटे और
संवारे जाएँ
ताकि
आज के साथ साथ
बिता हुआ कल भी
हमें पूर्णता का
एहसास दिला जाए

Wednesday, October 7, 2009

दावत

आज दावत है तुम्हे
मेरे दर्द मैं
शामिल होने की
मेरा दर्द-ऐ-दिल
समझने की
मेरे दर्द मैं ,रोने की
दम घुटता है
तनहा रोते रोते
तमन्ना नहीं
फिर बहार आए
तुम,हाँ,तुम
गेर दो अश्क ही
पोंछ दो
दिल-ऐ बेकरार को
करार आए

चाहत

गेर चाहत
एक गुनाह है
तो क्यों
झुकता है
आसमान
धेरती पर
और क्यों
घुमती है धेरती
सूरज के गिर्द

Tuesday, October 6, 2009

मन के बंद दरवाजे

इस से पहले की

अधूरेपन की कसक

तुम्हे चूर चूर कर दे

ता उमर हंसने

से मजबूर कर दे

खोल दो

मन के बंद दरवाजे

और घुटन को

कर लो दूर

दर्द हर दिल

मैं बस्ता है

दर्द से सभी का

पुश्तेनी रिश्ता है

कुछ उनकी सुनो

कुछ अपनी कहो

दर्द को सब

मिल जुल

कर सेहो

इस से पहले की दर्द

रिस रिस बन जाए नासूर

लगाकर हमदर्दी का मरहम

करो दर्द को कोसों दूर

बाँट लो सुख दुःख को

मन को,जीवन को

अमृत से

कर लो भरपूर

खोल लो मन के

बंद दरवाजे

और घुटन को

कर लो दूर

Monday, October 5, 2009

आज की नारी

आज की नारी
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आज की नारी
अबला नहीं
जो विषम
परिस्थितियों मै
टूटी माला के
मोतियों सी
बिखर जाती है


आज की नारी
सबला है,जिसे
टूट कर भी
जुड़ने और जोड़ने की
कला आती है

Saturday, October 3, 2009

मैं कहाँ थी

मैं जब वहां थी
तब भी, मैं
नहीं वहां थी
अपनों की
दुनिया के मेले मैं,
खो गयी मैं
न जाने कहा थी

बड़ों की खूबियों
का अनुकरण
कर  रहा  था
मेरे व्यक्तित्व 
का हरण 
मेरा निज 
परत  दर परत
दफ़न हो रहा था
और मैं अपने
दबते अस्तित्व से
 परेशान थी

कच्ची उमर मैं
ज़रूरत होती है
सहारे की
अपने पैरों
खड़े होने के बाद,
सहारे सहारे चलना
नादानी है बेल की
सोनजुही सी
पनपने की
सामर्थय मेरी
औरों के
सहारे सहारे चलना
क्यों मान लिया था
नियति  मेरी

मौन व्यथा और 
आंसुओं  से
सहिष्णु धरती का
सीना सींच
बरसों बाद 
अंकुरित हुई हूँ अब
संजोये मन मैं, 
पनपने की चाह
बोनसाई सा नही 
चाहती हूँ ज़िंदगी मैं
सागर सा विस्तार

नही जीना चाहती
पतंग की जिंदगी
लिए आकाश का विस्तार
जुड़ कर सच के धरातल से
अपनी ज़िंदगी का ख़ुद
बनाना चाहती हूँ आधार




रजनी छाबड़ा

















हम वो नहीं

हम वोह नहीं
जो आँसू और आहें
ओड़े सो लेते हैं
हालात को
मजबूरी समझ
ढ़ो लेते हैं
हम वोह हैं
जो उजड़े चमन मैं
उम्मीदों
के बीज
बो लेते हैं
इस जनम मैं
विरह तो क्या
फिर मिलेंगे
अगले जनम मैं
यही सोच कर
स्वपन आंखों मैं लिए
हम अधजगी रातों मैं
सो लेते हैं.









पैबंद

जाम आसूंओं के
लबालब पिए हैं
आह उभरे न कभी
होटों पर
होंट इस कदर
सिल लिए हैं
तार तार चाक
गिरेबान को
तेरी यादों के
पैबंद लगा लिए हैं

Friday, October 2, 2009

गाँधी की धरती

बिसरा दिया है हमने
बापू के तीन बंदरों को
अब तो बस
बुरा देखते है
बुरा बोलते हैं
बुरा सुनते हैं
गौतम और
गांधी की धरती
अब अक्सर है
रोती बिसूरती
बिसरा दिया है
हमने अहिंसा के
परम धर्म को
खून से लथपथ
मेरे बापू की धरती
गांधी सा मसीहा
धरती पर बार बार
न आयेगा
कौन हमें दुबारा
सत्य अहिंसा का
सबक सिखायेगा
क्यों न हम  ख़ुद ही
मसीहा बने शांति के
अग्रदूत बने
गांधी की
वैचारिक क्रांति  के
भुला कर ऊंच नीच
जात पात धर्म
का भेदभाव
भारत ही नही
सम्पूर्ण विशव में
लायें सद्भावना
का
सैलाब

रजनी छाबड़ा














माँ के आँचल सी

सर्दी में  उष्णता और
गर्मी में शीतलता
का एहसास
प्यार के ताने बने से बुनी
ममतामयी माँ के
आँचल सी
खादी केवल नाम नही हैं
खादी केवल काम नहीं हैं
खादी परिचायक है
स्वालंबन 
स्वाभिमान का
देश के प्रति
आपके अभिमान का
रंग उमंग और
प्यार के धागे से बुनी
देश ही नहीं
विदेश में भी पाए विस्तार
खादी को बनाइये
अपना जूनून
खादी दे
तन मन को सुकून

@रजनी छाबड़ा