सिमटते पँख
पर्वत, सागर, अट्टालिकाएं
अनदेखी कर सब बाधाएं
उन्मुक्त उड़ने की चाह को
आ गया है
खुद बखुद ठहराव
रुकना ही न जो जानते थे कभी
बँधे बँधे से चलते हैं वहीँ पाँव
उम्र का आ गया है ऐसा पड़ाव
सपनों को लगने लगा है विराम
सिमटने लगे हैं पँख
नहीं लुभाते अब नए आयाम
बँधी बँधी रफ़्तार से
बेमज़ा है ज़िंदगी का सफर
अनकहे शब्दों को
क्यों न आस की कहानी दें
देरुके रुके क़दमों को
फिर कोई रवानी दें दे/
बेमज़ा है ज़िंदगी का सफर
अनकहे शब्दों को
क्यों न आस की कहानी दें
देरुके रुके क़दमों को
फिर कोई रवानी दें दे/
रजनी छाबड़ा
प्रातः ८.५५
१८/७/२०१६