Thursday, September 17, 2009

मन की पतंग

पतंग सा शोख मन
लिए चंचलता अपार
छूना चाहता है
पूरे नभ का विस्तार
पर्वत,सागर,अट्टालिकाएं
अनदेखी कर
सब बाधाएं
पग आगे ही आगे बढाएं

ज़िंदगी की थकान को
दूर करने के चाहिए
मन की पतंग
और सपनो का आस्मां
जिसमे मन भेर सके
बेहिचक,सतरंगी उड़ान

पर क्यों थमाएं डोर
पराये हाथों मैं
हर पल खौफ
रहे मन मैं
जाने कब कट जाएँ
कब लुट जाएँ

चंचलता,चपलता
लिए देखे मन
ज़िन्दगी के आईने
पर सच के धरातल
पर टिके कदम ही
देते ज़िंदगी को मायेने

1 comment:

  1. वाह वाह क्या बात है! दिल को छू गई आपकी ये सुंदर और भावपूर्ण रचना!

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