जो ठहरा था
पल भेर को
मेरे आँगन
अपने स्नेह की
शीतल छाया ले कर
वक्त की बेरहम
आंधियां
जाने
ज़िंदगी के
किस मोड़ पे
छोड़ आयी
रह रह कर मन में
एक कसक
सी उभेरआए
काश! एक
मुठी आसमान
मेरा भी होता
कैद कर लेती उस में
पथिक बादल को
मेरे धुप
से
सुलगते आँगन में
संदली हवाओं का
बसेरा होता
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