समीक्षा
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काव्य संग्रह : ख़ामोशी की चीखें
कवि : डॉ संजीव कुमार
प्रकाशक : इंडिया नेटबुक्स ,नोएडा
पेपरबैक; मूल्य रु. 225 मात्र
यह वादी धुंआ धुंआ क्यों हैं? लहू ज़र्द हुआ क्यों है ?
जी हाँ, मैं ज़िक्र कर रही हूँ कश्मीर की हसीन वादियों का/ उन शांत, सुरमई वादियों का जहाँ कभी सुकून का बोलबाला था/ सभी धर्म अनुयायिओं का सौहार्द पूर्ण सह-अस्तित्व था / जाने किस की नज़र लग गयी और देखते ही देखते ज़न्नत ज़ह्नुम में तब्दील होने लगी/ सियासतों के इस दौर में , अब तो खुल कर सांस लेना भी दुश्वार हो गया है/ कभी हंसती गुनगुनाती वादियों में अब तो सुनायी देती हैं बस खामोशी की चीखें /
अत्यंत भावुक, संवेदनशील , निर्भीक , मनचक्षु से दुनिया देखने वाले प्रतिष्ठित कवि डॉ. संजीव कुमार के सद्य प्रकाशित काव्य संग्रह 'ख़ामोशी की चीखें' पढ़ते हुए, अपने अतीत के उन सुनहरे दिनों की याद मन में कौंध रही है जो मैने अपनी सनातक शिक्षा प्राप्ति के दौरान कश्मीर में बिताए / संन 1970 से 1973 का स्वर्णिम समय जो मैंने धरती के स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर की हसीन वादियों में बिताया, वह तो अब ख़्वाबों की बात हो गया/ अब तो एकदम विपरीत, विरोधाभासी स्थितियाँ हैं/
डॉ. संजीव की लगभग सभी कृतियाँ मैंने अपनी लाइब्रेरी में संजों रखी हैं /विभिन्न आयामों पर रचित उनकी कृतियां अनूठी है , परन्तु 'खामोशी की चीखें ; कुछ अलग ही अंदाज़ में रची गयी है/ सरल ,सहज शब्दों में विचारों की गहनता समायी है/ कवि ने मनो कश्मीर की वादियों के ज़र्रे ज़र्रें के दर्द को निजता से महसूस किया है/ उसकी चुभन से स्वयं को एकाकार किया है/
उनकी सशक्त लेखनी के माध्यम से , सियासती दौर की कुरूपता का वीभत्स चेहरा आँखों के आगे उभरने लगता है/
बेख़ौफ़ घूमते जुलूस
मार काट
बलात्कार ,लूटपाट
भय से थरथराती
धरती
और धरती पर बसे हुए
प्राणी, जीव, जंतु
राजनैतिक लाभ के लिए , लोगों को पथ भ्रमित करते, हिंसा के लिए उकसाने वाले लोगों को , कवि ने आड़े हाथों लेते हुए लिखा है
उम्मीद में घोलकर हिंसा
जगाकर दिलों में जुनून
इन्सान्यित का
कर रहें हैं खून
बैठकर ख़ुद आरामगाहों में
भटका रहे हैं
नौजवानों को
स्याह अँधेरे की चादर ओढ़ी रातों में, दनदनाते आते आतंकवादी , किसी कभी दरवाज़ा खटखटा , खाने के इंतज़ाम का हुक्म देते है/ इंकार करने की हिम्मत कोई करे भी तो कैसे , क्योंकि वे बंदूकों से लैस आते हैं/ रात का खाना खाते है, आराम फ़रमाते हैं और बहु बेटियों की अस्मत भी लूटते है/
औरतों से करते हैं
बदसलूकी
लूट लेते हैं घर
लूट लेते हैं अस्मत
और बस उसके बाद
रह जाती हैं देह
बन कर एक लाश
आत्मा हो जाती है
टुकड़ा टुकड़ा
दुर्भाग्य की पराकाष्ठा को झेल रही हैं, कश्मीर की अबलाएं , जो मानसिक आघात के बाद ज़िंदा लाशों जैसी ज़िंदगी बिता रही है/ ये अबलाएं रक्त रंजित कश्मीरियत की प्रतीक हैं/
लुटा चुकी हूँ
अपना सब कुछ
अपना सुहाग
अपना बेटा
अपनी बेटी
और अपना घर बार
पर नहीं पता
मौत क्यों न आई मुझे
कश्मीर से कश्मीरी पंडितों का जबरन विस्थापन, अल्प संख़्यक कश्मीरियों का भय त्रस्त चेहरा , जो हर पल मौत के आते हुए क़दमों की आहट महसूस करता है, इस काव्य संग्रह की मार्मिक कविताओं को पढने के बाद, आँखों के आगे उभरने लगता है/
कवि के आहत मन की व्यथा, पाठक को भी व्यथित कर देती है/ भावनाओं के धरातल पर पाठक भी रचियता के साथ ही खड़ा प्रतीत होता है/ यही इस काव्य संग्रह की उत्कृष्टता का प्रमाण है/
मज़हबी अंगारों में
जल गयी गुलनार
ख्वार ही ख्वार
काव्य संग्रह का मुख्य बिंदु ,कश्मीर से हिन्दुओं के पलायन से सम्बंधित है और अपनी जड़ों से उखड़ने
के दर्द को कवि ने बहुत मार्मिकता के साथ अभिव्यक्त किया है/
इतना सब कुछ घटित हो जाने के बाद भी, कश्मीर के लोग आशावान हैं/ आस का दीप अभी भी निराशा के अँधेरे को हटाने को आतुर है/
उन्हें इंतज़ार है
कि शायद
वह दिन भी तो आएगा
जब एक बार फिर
जाएंगे
अपनी धरती चूमने
और बनाने
अपनी धरती
पर अपना
वही घर
खामोशी की चीखें ' काव्य संग्रह कश्मीर की त्रासदी से साक्षात्कार कराता है/ क़ाश ! कश्मीर पहले जैसा धरती का स्वर्ग बन जाये और कश्मीर के लोगों को बेबसी, पीड़ा और बेचारगी से निज़ात मिले/
कवि की लेखनी की गहनता, संजीदगी की जितनी प्रशंसा की जाये, कम है/ इस अनुपम काव्य संग्रह की आशातीत लोकप्रियता के लिए डॉ. संजीव कुमार को मेरी शुभकामनायें /
रजनी छाबड़ा
बहु भाषीय कवयित्री व् अनुवादिका
गुरुग्राम
rajni.numerologist @gmail.com
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