Wednesday, September 29, 2010

राम या रहमान

 राम या रहमान

वह बोझिल मन लिए
उदास उदास
निहार रहा अपनी कुदरत
खड़ा क्षितिज के पास
मिल कर भी
नहीं मिलते जहाँ
दो जहान

अपनी अपनी आस्था की धरा पे
कायम हैं उसके बनाये इंसान
हो गए हैं जिनके मन प्रेम विहीन
बिसरा दिए हैं जिन्होंने दुनिया और दीन

इस रक्त रंजित धरा पर बिखरे
खून के निशान
वही नहीं बता सकता
उन् में कौन है राम
और कौन रहमान

बिसूरती मानवता के यह अवशेष
लुटती अस्मत, मलिन चेहरे, बिखरे केश

सुर्ख उनीदीं आँखें
जिन्हें सोने नहीं देता यह खौफ
जाने कौन घड़ी जला दिया जाये
उनका आशियाना
जब सारा समाज ही
हो रहा वहिशयाना

जहां सजता था
खुशियों का आशियाना
वहां बसर कर रहे
ख़ामोशी और वीराना

कुदरत बनाने वाला
शर्मिंदा है खुद
देख कर अपने
बन्दों के कर्म
और चाहता है सिर्फ
इंसानियत का धर्म
प्रेम,संवेदना और सहिष्न्नुता का मर्म
वरना न तो कुदरत रहेगी
न इंसान, न धर्म.

@ रजनी छाबड़ा

4 comments:

  1. bahut hi sundar......
    kuch panktiyaan meri taraf se bhi..
    किस काम के हैं ये मंदिर-मस्जिद, किस काम के हैं ये गुरूद्वारे
    इस देश के यह बेघर बच्चे जब फिरते मारे मारे |
    mere blog par thode se bargad ki chhaon mein jaroor aayein....

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  2. THANX,SHEKHAR JI,FOR UR VALUED COMMENT.

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  3. "इंसानियत का धर्म
    प्रेम,संवेदना और सहिष्न्नुता का मर्म
    वरना न तो कुदरत रहेगी
    न इंसान,न धर्म."

    bahut sundar rachna
    kavita ke maadhyam se achha sandesh diya

    aabhaar
    shubh kamnayen

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  4. सुंदर रचना के माध्यम से सच्चा सन्देश
    "चाहता है सिर्फ
    इंसानियत का धर्म
    प्रेम,संवेदना और सहिष्न्नुता का मर्म
    वरना न तो कुदरत रहेगी
    न इंसान,न धर्म"

    आभार

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