Thursday, October 15, 2009

अकाल

अब के बरस
यह कैसी दिवाली
मन रीता ,आँगन रीता
चहुँ ओर वीराना
खेत खलिहान
सब खाली खाली

अकाल ग्रसित गाँव
शहर के उजियारे के करीब
सिसक सिसक कर,
बयान कर रहे
उनके अन्धियारे
अपना नसीब

तुन भी उनकी रोशनी का
बन सकते हो सबब
गर इस दिवाली
अपने आँगन मैं
दो चार दीप
जला लो कम

नहीं छेड़ते उनके नौनिहाल
फुलझडी,पटाखे
मिठाई का राग
पर,उनके चूल्हे मैं भी
हो कुछ आग 
उनके आँगन मैं भी हो
दो चार रोशन चिराग़ 



















2 comments:

  1. Wonderful Poem ...... Bahut sundar Shabd ... Samay par chot kartee hui ... Kavita andar soye hue insaan ko jhakjhor deti hai ... insaaniyat ko Jhinjhod deti hai ... Likhai raho ... hum follow karte rahenge

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  2. सच है उनके लिये दिवाली कैसी जिनके सुख के चिराग बुझे है

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