ज़िन्दगी और
मौत के बीच
zindagi से lachaar
से पड़ी थी तुम
मन ही मन तब चाहा था मैंने
की आज तक तुम मेरी माँ थी
आज मेरी बेटी बन जाओ
अपने आँचल की छाओं मैं
लेकर करूं तुम्हारा दुलार
अनगिनत
mannaten
खुदा से कर
मांगी थी तुम्हारी जान की खैर
बरसों तुमने मुझे
पाला पोसा और संवारा
सुख सुविधा ने
जब कभी भी किया
मुझ से किनारा
रातों के नींद
दिन का चैन
सभी कुछ मुझ पे वारा
मेरी आँखों मैं गेर कभी
दो आँसू भी उभरे
अपने स्नेहिल आँचल मैं
sokhलिए तुमने
एक अंकुर थी मैं
स्नेह, ममता
से सींच कर मुझे
छाया भेरा तरु
banayaa
ज़िंदगी
भेर मेरा मनोबल
बढाया
हर विषम परिस्थिति मैं
मुझ को समझाया
वो बेल कभी न होना तुम
जो परवान चढ़े
दूसरों के सहारे
अपना सहारा ख़ुद बनना
है तुम्हे,ताकि परवान चढा
सको उन्हें जो हैं तुम्हारे सहारे
पैर तुम्हे सहारा देने की तमन्ना
दिल मैं ही रह गयी
तुम ,हाँ, तुम जिसने सारा जीवन
सार्थकता से बिताया था
कभी किसी
के आगे
सेर न झुकाया था
जिस शान से जी थी
उसी शान से दुनिया छोड़ चली
हाँ, मैं ही भूल गयीथी
उन्हें बैसाखियों के सहारे चलना
कभी नही होता गवारा
जो हर हाल मैं
देते रहे हो सहारा
ज़िन्दगी और
मौत के बीच
zindagi से lachaar
से पड़ी थी तुम
मन ही मन तब चाहा था मैंने
की आज तक तुम मेरी माँ थी
आज मेरी बेटी बन जाओ
अपने आँचल की छाओं मैं
लेकर करूं तुम्हारा दुलार
अनगिनत
mannaten
खुदा से कर
मांगी थी तुम्हारी जान की खैर
बरसों तुमने मुझे
पाला पोसा और संवारा
सुख सुविधा ने
जब कभी भी किया
मुझ से किनारा
रातों के नींद
दिन का चैन
सभी कुछ मुझ पे वारा
मेरी आँखों मैं गेर कभी
दो आँसू भी उभरे
अपने स्नेहिल आँचल मैं
sokhलिए तुमने
एक अंकुर थी मैं
स्नेह, ममता
से सींच कर मुझे
छाया भेरा तरु
banayaa
ज़िंदगी
भेर मेरा मनोबल
बढाया
हर विषम परिस्थिति मैं
मुझ को समझाया
वो बेल कभी न होना तुम
जो परवान चढ़े
दूसरों के सहारे
अपना सहारा ख़ुद बनना
है तुम्हे,ताकि परवान चढा
सको उन्हें जो हैं तुम्हारे सहारे
पैर तुम्हे सहारा देने की तमन्ना
दिल मैं ही रह गयी
तुम ,हाँ, तुम जिसने सारा जीवन
सार्थकता से बिताया था
कभी किसी
के आगे
सेर न झुकाया था
जिस शान से जी थी
उसी शान से दुनिया छोड़ चली
हाँ, मैं ही भूल गयीथी
उन्हें बैसाखियों के सहारे चलना
कभी नही होता गवारा
जो हर हाल मैं
देते रहे हो सहारा
Sunday, March 21, 2010
Sunday, March 7, 2010
hum zindagi se kya chahte hain
हम जिंदगी से क्या चाहते हैं
हम खुद नहीं जानते
हम जिंदगी से क्या चाहते हैं
कुछ कर गुजरने की चाहत मन में लिए
अधूरी चाहतों में जिए जाते हैं
उभरती हैं जब मन में
लीक से हटकर ,कुछ कर गुजरने की चाह
संस्कारों की लोरी दे कर
उस चाहत को सुलाए जाते हैं
सुनहली धुप से भरा आसमान सामने हैं
मन के बंद अँधेरे कमरे में सिमटे जाते हैं
चाहते हैं ज़िन्दगी में सागर सा विस्तार
हकीकत में कूप दादुर सा जिए जाते हैं
चाहते हैं ज़िन्दगी में दरिया सी रवानी
और अश्क आँखों में जज़्ब किये जाते हैं
चाहते हैं जीत लें ज़िन्दगी की दौड़
और बैसाखियों के सहारे चले जाते हैं
कुछ कर गुजरने की चाहत
कुछ न कर पाने की कसक
अजीब कशमकश में
ज़िंदगी जिए जाते हैं
हम खुद नहीं जानते
हम ज़िन्दगी से क्या चाहते हैं
हम खुद नहीं जानते
हम जिंदगी से क्या चाहते हैं
कुछ कर गुजरने की चाहत मन में लिए
अधूरी चाहतों में जिए जाते हैं
उभरती हैं जब मन में
लीक से हटकर ,कुछ कर गुजरने की चाह
संस्कारों की लोरी दे कर
उस चाहत को सुलाए जाते हैं
सुनहली धुप से भरा आसमान सामने हैं
मन के बंद अँधेरे कमरे में सिमटे जाते हैं
चाहते हैं ज़िन्दगी में सागर सा विस्तार
हकीकत में कूप दादुर सा जिए जाते हैं
चाहते हैं ज़िन्दगी में दरिया सी रवानी
और अश्क आँखों में जज़्ब किये जाते हैं
चाहते हैं जीत लें ज़िन्दगी की दौड़
और बैसाखियों के सहारे चले जाते हैं
कुछ कर गुजरने की चाहत
कुछ न कर पाने की कसक
अजीब कशमकश में
ज़िंदगी जिए जाते हैं
हम खुद नहीं जानते
हम ज़िन्दगी से क्या चाहते हैं
Friday, March 5, 2010
zindagi ki kitaab se { Dedicated To Cancer Patients}
ज़िन्दगी की किताब से
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ज़िन्दगी की किताब से
फट जाता है जब
कोई अहम पन्ना
अधूरी रह जाती है
जीने की तमन्ना
कभ कभी बागबान से
हो जाती है नादानी
तोड़ देता है ऐसे फूल को
जिसके टूटने से
सिर्फ शाख ही नहीं
छा जाती है
सारे चमन में वीरानी
रह जाता है मुरझाया पौधा
सीने में छुपाये
दर्द की कहानी
जिस पौध को पानी की बजाए
सींचना पड़ता हो
अश्कों ओर नए खून से
उस दर्द के पौधे का
अंजाम क्या होगा
अंजाम की फ़िक्र में
प्रयास तो नहीं छोड़ा जाता
मौत के बड़ते कदमों की
आहट से डर
जीने की राह से मुहँ
मोड़ा नहीं जाता
जब तक सांस
तब तक आस
गिने चुने पलों को
जी भर जीने का मोह
पल पल में
सदियाँ जी लेने की चाह
ज़िन्दगी में भर देता
इतनी महक सब ओर
विश्वास ही नहीं होता
कैसे टूट जाएगी यह डोर
दर्द के पौधे पर
अपनेपन के फूल खिलते हैं
यह फूल रहें या न रहें
इनकी यादों की खुशबू से
चमन महकते हैं
------------------
कैंसर रोगी को समर्पित कविता
रजनी छाबड़ा
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ज़िन्दगी की किताब से
फट जाता है जब
कोई अहम पन्ना
अधूरी रह जाती है
जीने की तमन्ना
कभ कभी बागबान से
हो जाती है नादानी
तोड़ देता है ऐसे फूल को
जिसके टूटने से
सिर्फ शाख ही नहीं
छा जाती है
सारे चमन में वीरानी
रह जाता है मुरझाया पौधा
सीने में छुपाये
दर्द की कहानी
जिस पौध को पानी की बजाए
सींचना पड़ता हो
अश्कों ओर नए खून से
उस दर्द के पौधे का
अंजाम क्या होगा
अंजाम की फ़िक्र में
प्रयास तो नहीं छोड़ा जाता
मौत के बड़ते कदमों की
आहट से डर
जीने की राह से मुहँ
मोड़ा नहीं जाता
जब तक सांस
तब तक आस
गिने चुने पलों को
जी भर जीने का मोह
पल पल में
सदियाँ जी लेने की चाह
ज़िन्दगी में भर देता
इतनी महक सब ओर
विश्वास ही नहीं होता
कैसे टूट जाएगी यह डोर
दर्द के पौधे पर
अपनेपन के फूल खिलते हैं
यह फूल रहें या न रहें
इनकी यादों की खुशबू से
चमन महकते हैं
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कैंसर रोगी को समर्पित कविता
रजनी छाबड़ा
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