Sunday, February 5, 2012

अपनी माटी


अपनी माटी 
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बस्ती में  रह के
जंगल के लिए
मन मयूर 
कसकता है

इस देहाती मन का 
क्या करुं
अपनी माटी की 
महक को तरसता है

कैसे भूल  जाऊं
अपने गाँव को
रिश्तों की 
सौंधी गलियों में 
वहाँ अपनेपन का
मेह बरसता है/



रजनी छाबड़ा 



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