Sunday, April 29, 2012

क्या शहर ,क्या गाँव

क्या शहर ,क्या गाँव

मेरे लिए
क्या शहर ,क्या गाँव
जीवन तपती दुपहरी
नहीं ममता की छाँव
गाँव में ,भाई को
मेरी देख रख में  डाल
माँ जाती, भोर से
खेती की करने
सार सम्भाल
शहर में, बड़ा भाई
जाता है कारखाने
गृहस्थी का बोझ बंटाने
खुद को काम में खपाने
कच्ची उम्र  की मजबूरी
काम पूरा, मजदूरी मिलती अधूरी
हाथ में कलम पकड़ने की उम्र में
बनाता है, कारखाने में बीड़ी
बाल श्रम का यह रोग
पहुँचता जाएगा
पीढ़ी दर पीढ़ी
छोटे भाई की देख रख का
नहीं हैं मलाल
पर मेरे लिए,जाने कब
आयेगा वह साल
जब मैं भी
जा सकूंगी स्कूल
ज़िंदगी की चक्की  से
गर दो घंटे भी
फुर्सत पाऊँ
खुद पढ़ूं , साथ में
छोटे भैया को भी पढ़ाऊँ
कुछ कर गुजरने की चाह
मन में संवारती
छोटे भाई को दुलारती
गीली लकड़ियाँ सुलगाती
रांधती हूँ दाल भात
माँ वापिस आती,थकी हारी
लिए शिथिल गात
दिन भर  की थकान से पस्त
सो जाती, बिन किये कोई बात
ममता के दो बोल को तरसता
जीवन मेरा, मेरे जीवन का नाम अभाव
मेरे लिए क्या शहर ,क्या गाँव
जीवन तपती दुपहरी, नहीं ममता की छाँव

रजनी छाबड़ा









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