Saturday, July 11, 2015

ज़िन्दगी की किताब से
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ज़िन्दगी की किताब से
फट जाता है जब
कोई अहम पन्ना
अधूरी रह जाती है
जीने की तमन्ना

कभ कभी बागबान से
हो जाती है नादानी
तोड़ देता है ऐसे फूल को
जिसके टूटने से
सिर्फ शाख ही नहीं
छा जाती है
सारे चमन में वीरानी
रह जाता है मुरझाया पौधा
सीने में छुपाये
दर्द की कहानी

जिस पौध को पानी की बजाए
सींचना पड़ता हो
अश्कों ओर नए खून से
उस दर्द के पौधे का
अंजाम क्या होगा

अंजाम की फ़िक्र में
प्रयास तो नहीं छोड़ा जाता
मौत के बड़ते कदमों की
आहट से डर
जीने की राह से मुँँह 
मोड़ा नहीं जाता
जब तक सांस
तब तक आस

गिने चुने पलों को
जी भर जीने का मोह
पल पल में
सदियाँ जी लेने की चाह
ज़िन्दगी में भर देता
इतनी महक सब ओर
विश्वास ही नहीं होता
कैसे टूट जाएगी यह डोर

दर्द के पौधे पर
अपनेपन के फूल खिलते हैं
यह फूल रहें या न रहें
इनकी यादों की खुशबू से
चमन महकते हैं



कैंसर रोगियों को समर्पित कविता 
रजनी छाबड़ा 

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