विलुप्त
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वक़्त की ठहरी हुई झील में
जमने लगी है काई
विलुप्त होती जा रही
अतीत की परछाई
रजनी छाबड़ा
२७/९/२०२४
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वक़्त की ठहरी हुई झील में
जमने लगी है काई
विलुप्त होती जा रही
अतीत की परछाई
रजनी छाबड़ा
२७/९/२०२४
भोर की पहली किरण
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मैं कोई कवि नहीं
महसूस करो मेरे भावों को
और रच दो कविता
मैं कोई गीतकार नहीं
गुनगुनाओ मुझे
और गीत बना दो
मैं कोई शिल्पकार नहीं
कच्ची माटी हूँ
घड़ लो मुझे
बहना चाहती हूँ
गुनगुनाते झरने सा
अवरोधों को हटाओ तुम
उड़ना चाहती हूँ
उन्मुक्त पाखी सी
पिंजरा बनाना छोड़ दो तुम
टिमटिमाते तारों सी
मेरी ज़िंदगी के आकाश पर
उजला चाँद बन आओ तुम
अमावसी निशांत
की आस
भोर की पहली किरण
बन जाओ तुम /
@रजनी छाबड़ा
27/9/2024