Sunday, November 16, 2025

कमल का अरमान

 



कमल का अरमान 

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साँझ के धुँधलके में 

जब क्षितिज़ 

प्रतीत होता  

धरा से मिलने को आतुर 


वादी पर  छाया जादू सा 

मनोरम दृश्यावली का 

मंद- मंद बयार 

शीतल, स्वच्छ, शांत जल 

डल झील में खिले हुए कमल 

अपने गुलाबी जादू के साथ 

मनभावन रूप से 

आँखों को लुभा रहे थे 


एक अकेला आतुर कमल 

प्रतीक्षारत था 

भ्रमर के लिए 

अपनी नाज़ुक़ पंखुरियों के साथ 

जैसे अपनी बाहें फैलाये हो 

भ्र्मर को आलिंगन के लिए 

आमंत्रित करते हुए


भ्र्मर उसके आकर्षण से मंत्रमुग्ध 

वहीं थम गया रात भर 

कमल की पंखुड़ियों की क़ैद में 


 भोर भये , पंखुड़ियां खुली 

कमल पूरे निख़ार पर था 

पर, भ्र्मर कहीं दूर उड़ गया 

कमल के क़ैद से मुक्त 


हर धुंधली शाम 

वह प्रेमातुर कमल 

प्रतीक्षारत है 

अपनी बाँहें फैलाये 

भ्र्मर की  

विलासिता भरी प्रकृति से 

बेख़बर 


प्रेमातुर कमल 

प्रतीक्षालीन है निरंतर 

अपने प्रेम -दीवाने के लिए 

परन्तु, भ्र्मर कभी भी नहीं 

 लौटता उसी फ़ूल पर 

यही उसकी जन्मजात प्रवृति  है/


प्रेमाकुल कमल और 

हरज़ाई भ्र्मर 

दोनों क़ायम हैं 

अपने अपने स्वभाव पर /

@ रजनी छाबड़ा 

यह मेरी प्रथम कविता है, जो मैंने काश्मीर की हसीन वादियों में १९७० में रची थी/ 


Thursday, November 13, 2025

साक्षी


साक्षी 

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मुझे उम्र छुपाने में नहीं 

उम्र जताने में 

सुकून  मिलता है/


क्यों अपने चेहरे को 

मेक अप के आवरण से 

ढकने की कोशिश करना 

यह जो चेहरे पर झुर्रियां 

झलकने लगी हैं 

यह तो खूबसूरत साक्षी हैं 

ज़िन्दगी के धूप छाँव के पलों की 

यह आड़ी तिरछी रेखाएं 

इंगित करती है गिनती 

उन तजुर्बों की 

जो हमने बरसों 

ज़िंदगी के सफर में बटोरे /


कंधे भी झुकने लगें हैं 

थोड़ा थोड़ा , शायद 

तजुर्बों की गठरी के बोझ से /


इस आपाधापी भरे जीवन में 

हर एक के नसीब में नहीं होता 

यह मुक़ाम /

रजनी छाबड़ा 


Tuesday, November 11, 2025

 उन्मुक्त 

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झरनों की कलकल 

पाखियों का कलरव 

उन्मुक्त उड़ान 

संदली बयार 

सावनी फुहार 

यही तुम्हारी 

हसीँ  की पहचान 


मोतियों वाले घर का 

दरवाज़ा खोल दो 

ओढ़ी हुई मुस्कान 

छोड़ दो/



निर्झर 

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पर्वत के शिखर की 

उत्तुंगता से उपजे 

शुभ्र, धवल 

निर्झर से तुम

 कँटीली उलझी राहों 

अवरोधों को अनदेखा कर 

कलकल करते 

गुनगुनाते 

सम गति से चलते 

अपनी राह बनाते जाना 

गतिशीलता धर्म तुम्हारा 

रुकना झुकना 

नहीं कर्म तुम्हारा 

प्रशस्त राहों के राही 

बनना हैं तुम्हे 

अंधियारे में

दीप सा 

जलते रहना /


आसमान आबी है

 

आसमान आबी है 

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आज आसमान आबी है 

फ़िज़ाओं में बेताबी है 

न जाने आज क़ुदरत 

क्या नया गुल खिलायेगी /

Monday, November 10, 2025

शब्द कोश रीत जाता है

 शब्द कोश  रीत जाता है 

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कैसे गुणगान करूँ मैं 

तुम्हारे अपरिमित सौंदर्य का 

तुम्हारे पावन, सुरमई आलोक का 

तुम्हारी मनभावन छवि 

तुम्हारे सौम्य स्वरूप का 


ओस की बूंदे, गुलाबी पंखुरियों से तुम्हारे लबों पर 

नृत्य करती, थरथराती 

बरखा की बूंदे , तुम्हारे हरित परिधान को 

सजाती -सँवारती, निखारती  

मेघ राशि तुम्हारे घने काले केशों को धोती 

मंद- मंद बयार 

तुम्हारे गालों  को सहलाती 

अठखेलियाँ करती तुम्हारे संग


तुम्हारे शोख नयनों को 

और भी कजरारा करते 

मदमस्त बादल 

उनमें अपना अक़्स छोड़ कर 

इठलाती , बल खाती नदियाँ 

अपनी रवानगी से , चार चाँद लगातीं 

तुम्हारी मंत्र -मुग्ध करती चाल में 


दिन में ,सूर्य अपनी सुनहरी रंगत से 

कर  देता तुम्हारी काया सोनाली 

और सांझ ढले 

अपनी सिंदूरी किरणों से 

आतुर रहता 

तुम्हारी मांग भरने के लिए 

धीमे क़दमों  से आती रात के साथ 

चाँद, तारो की बारात लिए आता 

तुम्हें प्रेम निमंत्रण देने 


तुम प्रकृति की साम्राज्ञी 

मैं  शब्दों का विनीत पुजारी 

प्रयास रत हूँ , तुम्हारी छवि 

शब्दों में उकेरने के लिए 

परन्तु ,

 हे,वनदेवी!

मेरी आँखों में क़ैद 

मेरी मन की अथाह गहराईयों में उतरे 

इस आलौकिक स्वरूप को 

शब्दों में पिरोने के प्रयास में 

हर बार रह जाता हैं कुछ अनकहा 

शब्द-कोश  रीत जाता है/


@रजनी छाबड़ा 

10 /11/2025