Monday, November 10, 2025

शब्द कोश रीत जाता है

 शब्द कोश  रीत जाता है 

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कैसे गुणगान करूँ मैं 

तुम्हारे अपरिमित सौंदर्य का 

तुम्हारे पावन, सुरमई आलोक का 

तुम्हारी मनभावन छवि 

तुम्हारे सौम्य स्वरूप का 


ओस की बूंदे, गुलाबी पंखुरियों से तुम्हारे लबों पर 

नृत्य करती, थरथराती 

बरखा की बूंदे , तुम्हारे हरित परिधान को 

सजाती -सँवारती, निखारती  

मेघ राशि तुम्हारे घने काले केशों को धोती 

मंद- मंद बयार 

तुम्हारे गालों  को सहलाती 

अठखेलियाँ करती तुम्हारे संग


तुम्हारे शोख नयनों को 

और भी कजरारा करते 

मदमस्त बादल 

उनमें अपना अक़्स छोड़ कर 

इठलाती , बल खाती नदियाँ 

अपनी रवानगी से , चार चाँद लगातीं 

तुम्हारी मंत्र -मुग्ध करती चाल में 


दिन में ,सूर्य अपनी सुनहरी रंगत से 

कर  देता तुम्हारी काया सोनाली 

और सांझ ढले 

अपनी सिंदूरी किरणों से 

आतुर रहता 

तुम्हारी मांग भरने के लिए 

धीमे क़दमों  से आती रात के साथ 

चाँद, तारो की बारात लिए आता 

तुम्हें प्रेम निमंत्रण देने 


तुम प्रकृति की साम्राज्ञी 

मैं  शब्दों का विनीत पुजारी 

प्रयास रत हूँ , तुम्हारी छवि 

शब्दों में उकेरने के लिए 

परन्तु ,

 हे,वनदेवी!

मेरी आँखों में क़ैद 

मेरी मन की अथाह गहराईयों में उतरे 

इस आलौकिक स्वरूप को 

शब्दों में पिरोने के प्रयास में 

हर बार रह जाता हैं कुछ अनकहा 

शब्द-कोश  रीत जाता है/


@रजनी छाबड़ा 

10 /11/2025