उन्मुक्त
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झरनों की कलकल
पाखियों का कलरव
उन्मुक्त उड़ान
संदली बयार
सावनी फुहार
यही तुम्हारी
हसीँ की पहचान
मोतियों वाले घर का
दरवाज़ा खोल दो
ओढ़ी हुई मुस्कान
छोड़ दो/
निर्झर
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पर्वत के शिखर की
उत्तुंगता से उपजे
शुभ्र, धवल
निर्झर से तुम
कँटीली उलझी राहों
अवरोधों को अनदेखा कर
कलकल करते
गुनगुनाते
सम गति से चलते
अपनी राह बनाते जाना
गतिशीलता धर्म तुम्हारा
रुकना झुकना
नहीं कर्म तुम्हारा
प्रशस्त राहों के राही
बनना हैं तुम्हे
अंधियारे में
दीप सा
जलते रहना /
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