कहाँ गए सुनहरे दिन
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कहाँ गए सुनहरे दिन
जब बटोही सुस्ताया करते थे
पेड़ों की शीतल छाँव में
कोयल कूकती थी
अमराइयों में
सुकून था गावँ में
कहाँ गए संजीवनी दिन
जब नदियां स्वच्छ शीतल
जलदायिनी थी
शुद्ध हवा में सांस लेते थे हम
हवा ऊर्जा वाहिनी थी
कैसे भूल सकते हैं
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हम भूल सकते है उन्हें
जिन्होंने संग हमारे
हमारे सुख में
लगाये हो कहकहें /
जिन्होंने हमारे दुःख में
बहाये हो आसूँ अनकहे
अक्स की उम्र
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उम्र भर का साथ
निभ जाता है कभी
बुत बन जाते हैं
निभ जाता है कभी
एक ही पल में
बुलबुले में
उभरने वाले
अक्स की उम्र
होती है फ़कत
एक ही पल की
रेत की दीवार
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ज़िन्दगी रेत की दीवार
ज़माने में
आँधियों की भरमार
जाने कब ठह जाये
यह सतही दीवार
फ़िर भी, क्यों ज़िंदगी से
इतना मोह, इतना प्यार
सहमी सहमी
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मौत जब बहुत करीब से
आकर गुज़र जाती है
दहशत का लहराता हुआ
साया सा छोड़ जाती है
सहमी सहमी से रहती हैं
दिल की धड़कने
दिल की बस्ती को
बियाबान सा छोड़ जाती है
आस्था के बुत
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हर शहर की
हर गली मेँ ,
कुछ इबादतखाने और
कुछ बुतखाने होते हैं,
जहाँ लोग
अपनी अपनी
आस्था के बुत
बना देते हैं,
अपने अपने
रस्म-ओ-रिवाजों से
उनको सजा लेते हैं/
बाकी दुनिया के
धर्म कर्म से फिर
वो बेमाने होते हैं/
धीरे धीरे,
इस कदर
खो जाते हैं
सतही इबादत में ,कि
अपने धर्म को
अपने ईमान से
सींचने कि बजाय,
रंग देते हैं
उनके खून से
जो उनके मजहब से
बेगाने होते हैं/
आस्था के बुत
आस्था के बुत
बनाते बनाते
उन्हें मालूम ही नहीं चलता
कि वो खुद कब
पक्षपात
********
दोष लगेगा उस पर
पक्षपात का
गर ज़रा सा भी दुःख
न वह देगा मुझे
मैं भी तो एक ज़र्रा हूँ
उसकी कायनात का
उसी कारवां की एक मुसाफिर
सुख दुःख की छावों मैं
चलते हैं जहां सभी
अछूती रही गर
दुनिया के दस्तूर से
क्या रूस्वाँ न होगा
मेरा मुक्कदर
लिखने वाला
********
दोष लगेगा उस पर
पक्षपात का
गर ज़रा सा भी दुःख
न वह देगा मुझे
मैं भी तो एक ज़र्रा हूँ
उसकी कायनात का
उसी कारवां की एक मुसाफिर
सुख दुःख की छावों मैं
चलते हैं जहां सभी
अछूती रही गर
दुनिया के दस्तूर से
क्या रूस्वाँ न होगा
मेरा मुक्कदर
लिखने वाला
काँच की दीवार
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ऐन आँखों के सामने खड़े हैं वे
काँच की दीवार के उस पार
छू नहीं सकती
निहार सकती हूँ
पूरे होश ओ हवास के साथ
उनकी आँखों में उमड़ता
प्यार का सागर
यह नियामत क्या कम है
मेरे लिए, परवरदिगार
रजनी छाबड़ा
( आई सी यू , मैक्स हॉस्पिटल से लिखी गयी चंद पंक्तियाँ , जो अब कलमबद्ध की हैं )
ज़िन्दगी के धागे
****************
विश्वास के धागे
सौंपे हैं तुम्हारे हाथ
कुछ उलझ से गए है
सुलझा देना मेरे पालनहार
तुम तो हो सुलझे हुए कलाकार
पर इन दिनों
वक़्त ही नहीं मिलता तुम्हे
बहुत उलझ गए हो
सुलझाने में
दुनिया की उलझने बेशुमार
मेरे लिए भी
थोड़ी फुर्सत निकालो ना
टूटने पाया न विश्वास मेरा
तुम्ही कोई राह निकालो ना
कहते हैं दुनिया वाले
खड़ी हूँ
ज़िंदगी और मौत की सरहद पर
तुम्हीं हौले हौले
ज़िंदगी की ओर सरका दो ना
ज़िंदगी हमेशा हसीन लगी हैं मुझे
लिए यही खुशगवार एहसास
रहने दोगे न अपनों के संग
क्या अब भी कर लूँ
तुम पर यह विश्वास
( आई सी यू , मैक्स हॉस्पिटल में सोची गयी चंद पंक्तियाँ , जो अब कलमबद्ध की हैं )
रजनी छाबड़ा
ज़िन्दगी के धागे
****************
विश्वास के धागे
सौंपे हैं तुम्हारे हाथ
कुछ उलझ से गए है
सुलझा देना मेरे पालनहार
तुम तो हो सुलझे हुए कलाकार
पर इन दिनों
वक़्त ही नहीं मिलता तुम्हे
बहुत उलझ गए हो
सुलझाने में
दुनिया की उलझने बेशुमार
मेरे लिए भी
थोड़ी फुर्सत निकालो ना
टूटने पाया न विश्वास मेरा
तुम्ही कोई राह निकालो ना
कहते हैं दुनिया वाले
खड़ी हूँ
ज़िंदगी और मौत की सरहद पर
तुम्हीं हौले हौले
ज़िंदगी की ओर सरका दो ना
ज़िंदगी हमेशा हसीन लगी हैं मुझे
लिए यही खुशगवार एहसास
रहने दोगे न अपनों के संग
क्या अब भी कर लूँ
तुम पर यह विश्वास
( आई सी यू , मैक्स हॉस्पिटल में सोची गयी चंद पंक्तियाँ , जो अब कलमबद्ध की हैं )
रजनी छाबड़ा
ज़िन्दगी के धागे
****************
विश्वास के धागे
सौंपे हैं तुम्हारे हाथ
कुछ उलझ से गए है
सुलझा देना मेरे पालनहार
तुम तो हो सुलझे हुए कलाकार
पर इन दिनों
वक़्त ही नहीं मिलता तुम्हे
बहुत उलझ गए हो
सुलझाने में
दुनिया की उलझने बेशुमार
मेरे लिए भी
थोड़ी फुर्सत निकालो ना
टूटने पाया न विश्वास मेरा
तुम्ही कोई राह निकालो ना
कहते हैं दुनिया वाले
खड़ी हूँ
ज़िंदगी और मौत की सरहद पर
तुम्हीं हौले हौले
ज़िंदगी की ओर सरका दो ना
ज़िंदगी हमेशा हसीन लगी हैं मुझे
लिए यही खुशगवार एहसास
रहने दोगे न अपनों के संग
क्या अब भी कर लूँ
तुम पर यह विश्वास
( आई सी यू , मैक्स हॉस्पिटल में सोची गयी चंद पंक्तियाँ , जो अब कलमबद्ध की हैं )
रजनी छाबड़ा
ज़िन्दगी ने तो मुझे
कभी फुर्सत न दी
ऐ मौत !
तू ही कुछ मोहलत दे
अता करने है अभी
कुछ क़र्ज़ ज़िंदगी के
अदा करने हैं अभी
कुछ फर्ज़ ज़िंदगी के
अधूरी हैं तमन्ना अभी
मंज़िल को पाने की
पेशतर इसके कि
खो जाऊं
गुमनुमा अंधेरों में
चंद चिराग़
रोशन करने की
ऐ मौत! तू ही
कुछ मोहलत दे/
ज़िंदगी ने तो मुझे
कभी फुरसत न दी
ऐ मौत! तू ही
कुछ मोहलत दे
रजनी छाबड़ा
मन के बाज़ार में
===========
टूट कर जुड भी जाएँ ,तो दरार दिखती है
मन के बाज़ार में , फिर नहीं ,वो शै बिकती है
यूं तो चाँद की चांदनी ,बिखरती हैं सारे ज़हाँ पर
ग्रहण लगे चाँद से,नहीं चांदनी रिसती है
दुनिया के लाये वही सुबह,वही शब्
बिन तेरे मेरी हर सुबह शब् जैसी ,हर शब् ए गम सिसकती है
धुंधलाने लगे तेरे नक़श ऐ पाँ ,वक़्त की रेत में
अब रास्ता ही रास्ता है,मंज़िल नहीं दिखती है/
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टूट कर जुड भी जाएँ ,तो दरार दिखती है
मन के बाज़ार में , फिर नहीं ,वो शै बिकती है
यूं तो चाँद की चांदनी ,बिखरती हैं सारे ज़हाँ पर
ग्रहण लगे चाँद से,नहीं चांदनी रिसती है
दुनिया के लाये वही सुबह,वही शब्
बिन तेरे मेरी हर सुबह शब् जैसी ,हर शब् ए गम सिसकती है
धुंधलाने लगे तेरे नक़श ऐ पाँ ,वक़्त की रेत में
अब रास्ता ही रास्ता है,मंज़िल नहीं दिखती है/
रजनी छाबड़ा
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