Saturday, October 3, 2009

मैं कहाँ थी

मैं जब वहां थी
तब भी, मैं
नहीं वहां थी
अपनों की
दुनिया के मेले मैं,
खो गयी मैं
न जाने कहा थी

बड़ों की खूबियों
का अनुकरण
कर  रहा  था
मेरे व्यक्तित्व 
का हरण 
मेरा निज 
परत  दर परत
दफ़न हो रहा था
और मैं अपने
दबते अस्तित्व से
 परेशान थी

कच्ची उमर मैं
ज़रूरत होती है
सहारे की
अपने पैरों
खड़े होने के बाद,
सहारे सहारे चलना
नादानी है बेल की
सोनजुही सी
पनपने की
सामर्थय मेरी
औरों के
सहारे सहारे चलना
क्यों मान लिया था
नियति  मेरी

मौन व्यथा और 
आंसुओं  से
सहिष्णु धरती का
सीना सींच
बरसों बाद 
अंकुरित हुई हूँ अब
संजोये मन मैं, 
पनपने की चाह
बोनसाई सा नही 
चाहती हूँ ज़िंदगी मैं
सागर सा विस्तार

नही जीना चाहती
पतंग की जिंदगी
लिए आकाश का विस्तार
जुड़ कर सच के धरातल से
अपनी ज़िंदगी का ख़ुद
बनाना चाहती हूँ आधार




रजनी छाबड़ा

















2 comments:

  1. Na Jaane Kyon aisaa lagtaa hai ki tumne apnee Zindagi ko jyo ka tyon shabdon mei utaar diya hai iss kavita ke Madhyam se ...... Lajawaab :)

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  2. Hi,u r sadly n badly mistaken, its not abt my life.Throughout my life, my presence n my absence have been equally felt.Its abt life of a co passenger,wid whom I travelled a couple of yrs ago.Is kavita main maine, uske dard aur uski zindagi ko jiya hai.

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